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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पहला अध्याय
प्रेष्ठं प्रियेतरमिव प्रतिभाषमाणं उन गोपियों का मन एक मात्र श्रीकृष्ण में ही अनन्य भाव से अनुरक्त था। वे उनके लिये-उनकी सेवा के अतिरिक्त सभी भोगों का, सभी कामनाओं का सर्वथा त्याग कर चुकी थीं। जब उन्होंने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के मुख से प्रेमशून्य व्यक्ति की-सी निष्ठुरता से भरी उपेक्षायुक्त वाणी सुनी, तब उन्हें बड़ी ही मर्म वेदना हुई। रोते-रोते उनकी आँखें रुँध गयीं, फिर उन्होंने धीरज धारण करके अपनी आँखों के आँसू पोंछे और पुनः रोती हुई प्रणयकोप के कारण गद्गदवाणी से कहने लगीं।।30।।
मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं गोपियाँ बोलीं - हे सर्वसमर्थ प्रभो! हमारे प्राणवल्लभ! हे स्वच्छन्दविहारी! आप परम कोमल स्वभाव होकर भी इस प्रकार के निष्ठुरता भरे वचन क्यों बोल रहे हैं? ऐसा तो आपको नहीं चाहिये। हम धर्म-लज्जा-पति-स्वजनादि समस्त विषयों को सर्वथा त्यागकर यहाँ आयी हैं। हम तुम्हारे चरणतलों की सेविकाएँ हैं। हम लोगों का परित्याग मत करो। जैसे आदिदेव भगवान नारायण संसार-बन्धन से छूटने की इच्छा रखने वाले पुरुषों का मनोरथ पूर्ण करते हैं, वैसे ही तुम भी हमारे अंदर जाग्रत हुई तुम्हारी चरण सेवा-वासना को पूर्ण करके हमें कृतार्थ करो।।31।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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