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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पहला अध्याय
इति विप्रियमाकर्ण्य गोप्यो गोविन्दभाषितम्। श्री शुकदेव जी ने कहा - परीक्षित! गोविन्द की उपर्युक्त अत्यन्त अप्रिय बातें सुनकर गोपियाँ खिन्न हो गयीं, उनकी आशा टूट गयी और वे भीषण चिन्ता के अथाह समुद्र में डूब गयीं।।28।। कृत्वा मुखान्यव शुच: श्वसनेन शुष्यद्- उनका हृदय दुःख से भर गया, उनके लाल-लाल पके हुए बिम्बफल-से अधर शोक के कारण चलने वाले लंबे तथा गरम श्वासों के ताप से सूख गये, उन्होंने अपने मुख नीचे की ओर लटका लिये और पैर के नखों से वे पृथ्वी को कुरेदने लगीं। उनके नेत्रों से काजल से सने आँसू बह-बहकर वक्षःस्थल पर पहुँच गये और वहाँ लगी हुई केसर को धोने लगे। वे चुपचाप खड़ी रह गयीं, कुछ भी बोल न सकीं।।29।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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