रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 17

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम[1] में दिये गये प्रवचन


इसलिये परीक्षित सरीखे लोगों के मन में भी यह प्राकृत राज्य की बात आ जाती है तो यह पहले समझ लेना है कि भगवान का जो शरीर है, वह कैसा है? हम लोगों के शरीर में तीन चीज हैं। एक तो यह बना है कर्म से, स्वेच्छाकृत नहीं है, दूसरे इसमें धातु है, पाञ्चभौतिक है, तीसरे यह जन्म और मरण वाला है। यह पाञ्चभौतिक है, कर्मजनित है और बनने-बिगड़ने वाला है। भगवान की देह ऐसी नहीं है। वह चिदानन्दघन है, पाञ्चभौतिक नहीं। वह नित्य है, अपनी इच्छा बनी हुई।

  • श्रीमद्भागवत में आया है - ‘स्वेच्छामयस्यन तु भूतमयस्य कोऽपि’[2] और
  • श्रीरामचरितमानस में आया है - चिदानन्दमय देह तुम्हारी, बिगत विकार जान अधिकारी।[3]

इसलिये

  1. यह सच्चिदानन्दमय है, पाञ्चभौतिक नहीं
  2. यह जन्मने मरने वाली नहीं, यह प्रकट और अन्तर्धान होती है और
  3. यह कर्मजन्य नहीं है, यह स्वेच्छामय है। यह नित्य शुद्ध सनातन भगवत्स्वरूप है।

इसी प्रकार गोपियों की देह भी दिव्य जगत की, भगवान की स्वरूपभूत जो अन्तरंग शक्तियाँ हैं, उनसे उनका शरीर है। इसी प्रकार इनका सम्बन्ध भी चिन्मय है। यह उच्चतम भावराज्य की जो लीला है यह स्थूल शरीर और मन से परे की है।

इसकी प्रतीति होती है आवरण भंग होने की बाद। आवरण कहते हैं जैसे हमारे और किसी दूसरी चीज के बीच पर्दा पड़ा हुआ हो। इस पर्दे का नाम है आवरण। जब तक पर्दा है तब तक चीज स्पष्ट दिखाई नहीं देती है। यह आवरण भंग होने के पश्चात भगवान की स्वीकृति होती है। तब उसमें प्रवेश होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋषिकेश
  2. 10/14/2
  3. अयो./126/5

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