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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पहला अध्याय
तद् यात माचिरं गोष्ठं शुश्रूषध्वं पतीन् सती:। इसलिये हे सतियों! अब देर मत करो, बहुत शीघ्र व्रज को लौट जाओ। घर जाकर अपने-अपने पतियों की सेवा करो। देखो, तुम्हारे घर के बछड़े और छोटे-छोटे बच्चे रो रहे हैं, जाकर उन्हें दूध पिलाओ तथा बछड़ों के लिये गौएँ भी दुहो।।22।। अथवा मदभिस्नेहाद् भवत्यो यन्त्रिताशया:। भगवान की इस बात को सुनकर गोपियों के मन में बड़ा क्षोभ हुआ, तब भगवान उनको आश्वासन देते हुए सती स्त्रियों के परम धर्म पतिसेवा तथा जार सेवन के दुष्परिणाम का स्मरण कराकर बोले - ‘अथवा यदि तुम लोग मेरे प्रति अत्यन्त प्रेमपरवश होकर आयी हो तो यह तुम्हारे योग्य ही है; क्योंकि प्राणिमात्र[1] मुझसे प्रेम करते हैं।।23।। भुर्त: शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो ह्यमायया। परन्तु हे कल्याणी सतियों! यह सब होते हुए भी स्त्रियों का परम धर्म तो यही है कि निष्कपट भाव से पति और उसके भाई-बन्धुओं की सेवा करें तथा पुत्र-कन्यादि का और सेवक आदि का पालन-पोषण करें।।24।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पशु-पक्षी तक
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