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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पहला अध्याय
रजन्येषा घोररूपा घोरसत्त्वनिषेविता। इस बात को सुनकर गोपियाँ लज्जायुक्त होकर मुस्कराने लगीं, तब उन्हें भय दिखाकर उनके प्रेम की परीक्षा लेते हुए भगवान ने फिर कहा - अरी सुन्दरियों! यह रात्रि का समय है; जो स्वभावतः बड़ा भयानक है; फिर इस वन में बाघ-सिंह आदि हिंसक प्राणी भरे हुए हैं। अतः तुम सब तुरंत व्रज को लौट जाओ। रात के समय इस घोर वन में स्त्रियों का ठहरना उचित नहीं है।।19।। मातर: पितर: पुत्रा भ्रातर: पतयश्च व:। जब भय का उन पर कोई असर नहीं हुआ, तब भगवान ने उन्हें अपने घरवालों की दुश्चिन्ता का स्मरण दिलाया और कहा - देखो, तुम्हारे माता-पिता, पुत्र, भाई और पति तुम्हें घर में देखकर इधर-उधर ढूँढ रहे होंगे। उन आत्मीय स्वजनों के मन में यह भय मत उत्पन्न होने दो कि पता नहीं, तुम्हारा क्या अनिष्ट हो रहा होगा।।20।। दृष्टं वनं कुसुमितं राकेशकररञ्जितम्। (उपर्युक्त तीन श्लोकों के द्वारा भगवान ने गोपियों के अनन्य प्रेमभाव की परीक्षा की। अनन्य-एकनिष्ठ प्रेम हुए बिना भगवान कभी प्रेमास्पद रूप से प्राप्त नहीं होते।) जब भगवान की ऐसी बातें सुनकर भी गोपियाँ कुछ बोलीं नहीं तथा प्रणय-कोप के वश होकर दूसरी ओर देखने लगीं, तब भगवान उन्हें वनशोभा की बात कहकर सती रूप से पतिसेवा करने तथा वात्सल्य भाव से बालक-वत्सों की सँभालने का कर्तव्य दिखाते हुए फिर कहने लगे- कदाचित तुम सब वन की शोभा देखने आयी होगी तो तुम लोगों ने भाँति-भाँति रंगो वाले परम विचित्र सुगन्धि से सम्पन्न पुष्पों से परिशोभित, पूर्णचन्द्रमा की किरण प्रभा से प्रभासित तथा यमुना जल का स्पर्श करके बहने वाले शीतल पवन की मन्द-मन्द गति से नाचते हुए वृक्षों के पत्तों से विभूषित वृन्दावन को भी देख लिया।।21।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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