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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पहला अध्याय
दुस्सहप्रेष्ठविरहतीव्रतापधु ताशुभा:। परम प्रियतम श्रीकृष्ण के साक्षात मिलने में जब यों बाधा पड़ गयी, तब उसी क्षण उनके हृदयों में असह्य विरह की तीव्र ज्वाला धधक उठी - इतनी भयानक जलन हुई कि उनके अंदर अशुभ संस्कारों का जो कुछ लेशमात्र शेष था, वह सारा भस्म हो गया। फिर तुरन्त ही वे श्रीकृष्ण के ध्यान में निमग्न हो गयीं। ध्यान में प्राप्त हुए श्रीकृष्ण के आलिंगन से उन्हें इतना सुख मिला कि उनके सब-के-सब पुण्य के संस्कार भी एक ही साथ समूल नष्ट हो गये। यद्यपि गोपियों ने उस समय उन श्रीकृष्ण को जार-भाव से ही केवल ध्यान में प्राप्त किया था, फिर भी वे थे तो साक्षात परमात्मा ही, चाहे किसी भी भाव से उनका आलिंगन प्राप्त हुआ हो; अतएव उन्होंने पाप और पुण्यरूपी बन्धन से रहित होकर उसी क्षण प्राकृत[1]शरीर को छोड़ दिया और भगवान की लीला में प्रवेश करने योग्य दिव्य अप्राकृत देह को प्राप्त कर वे प्रियतम श्रीकृष्ण से जा मिलीं।।10-11।।
कृष्णं विदु: परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने। महाराज परीक्षित ने पूछा - श्रीकृष्णलीलामाधुरी का नित्य मनन करने वाले श्री शुकदेव जी! गोपियाँ तो श्रीकृष्ण को केवल परम प्रियतमरूप से ही जानती थीं; वे साक्षात परब्रह्म हैं, ऐसा अनुभव तो वे करती नहीं थीं। उनकी बुद्धि तो श्रीकृष्ण के सौन्दर्य-माधुर्य-लावण्य आदि गुणों में ही लगी हुई थी। ऐसी स्थिति में वे त्रिगुणमय देहादि संसार के प्रवाह से मुक्त कैसे हो गयीं? वे संसार से मुक्त होकर परमात्मा श्रीकृष्ण से कैसे जा मिलीं?।।12।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हाड़-मांस से बने
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