रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 164

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पहला अध्याय

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ता वार्यमाणा: पतिभि पितृभि: पितृभिर्भ्रातृबन्धुभि:।
गोविन्दापहृतात्मानो न न्यवर्तन्त मोहिता:।।8।।

श्रीगोपांगनाओं का आत्मा-मन श्रीगोविन्द के द्वारा हर लिया गया था; इसलिये वे ऐसी सर्वथा मोहित-बाह्य विवेक से शून्य हो गयीं कि अपने पति, पिता तथा भाई-बन्धुओं के द्वारा रोकी जाने पर भी मुड़ीं नहीं। वे अपने-आपको भूलकर श्रीकृष्ण -संग की प्राप्ति के लिये दौड़ पड़ीं।।8।।

अंतर्गृहगता: काश्चिद्‌ गोप्योऽलब्धविनिर्गमा:।
कृष्णं तद्भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचना:।।9।।

श्रीगोपांगनाएँ दो प्रकार की थीं- नित्य सिद्धा और साधनसिद्धा। श्रीराधा तो भगवान की आह्लादिनी शक्ति ही थीं। ललिता, विशाखा, रूपमंजरी, अनंगमंजरी आदि सखी-सहचरी नित्यसिद्धा थीं। उन्हें तो कोई रोक ही नहीं सकता था। दण्डकारण्यवासी महर्षि आदि जो गोपीदेह को प्राप्त थे, वे साधनसिद्धा गोपियाँ थीं। उनमें से कुछ गोपांगनाओं की साधना अभी पूर्ण नहीं हुई थी, इसलिये उनकी श्रीकृष्ण के मिलन की रीति दूसरी थी। अतएव वे उस समय घर के भीतर गयी हुई थीं। पतियों ने घरों के दरवाजे बंद कर दिये; इसलिये उनको बाहर निकलने का मार्ग ही न मिला। तब वे आँखें मूँदकर उन प्रियतम श्रीकृष्ण की भावना से भावित होकर बड़ी तन्मयता से उनके सौन्दर्य-माधुर्य और उनकी मधुरतम लीलाओं का ध्यान करने लगीं।।9।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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