रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 153

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-रहस्य

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शुभाशुभ कर्मों के भोग से जब पाप-पुण्य दोनों नाश हो जाते हैं, तब जीव की मुक्ति हो जाती है। यद्यपि गोपियाँ पाप-पुण्य से रहित श्रीभगवान की प्रेम-प्रतिमास्वरूपा थीं, तथापि लीला के लिये दिखाया गया है कि अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के पास न जा सकने से उनके विरहानल से उनको इतना महान संताप हुआ कि उससे उनके सम्पूर्ण अशुभ का भोग हो गया, उनके समस्त पाप नष्ट हो गये और प्रियतम भगवान के ध्यान से उन्हें इतना आनन्द हुआ कि उससे उनके सारे पुण्यों का फल मिल गया। इस प्रकार पाप-पुण्यों का पूर्णरूप से अभाव होने से उनकी मुक्ति हो गयी। चाहे किसी भी भाव से हो- काम से, क्रोध से, लोभ से-जो भगवान के मंगलमय श्रीविग्रह का चिन्तर करता है, उसके भाव की अपेक्षा न करके वस्तुशक्ति से ही उसका कल्याण हो जाता है। यह भगवान के श्रीविग्रह की विशेषता है। भाव के द्वारा तो एक प्रस्तरमूर्ति भी परम कल्याण का दान कर सकती है, बिना भाव के ही कल्याणदान भगवद्विग्रह का सहज दान है।

भगवान हैं बड़े लीलामय। जहाँ वे अखिल विश्व के विधाता ब्रह्मा, शिव आदि के भी वन्दनीय निखिल जीवों के प्रत्यगात्मा हैं, वहीं वे लीलानटवर गोपियों के इशारे पर नाचने वाले भी हैं। उन्हीं की इच्छा से उन्हीं के प्रेमाहान से, उन्हीं के वंशी-निमन्त्रण से प्रेरित होकर गोपियाँ उनके पास आयीं; परन्तु उन्होंने ऐसी भावभंगी प्रकट की, ऐसा स्वांग बनाया, मानो उन्हें गोपियों के आने का कुछ पता ही न हो। शायद गोपियों के मुँह से वे उनके हृदय की बात-प्रेम की बात सुनना चाहते हों। सम्भव है, वे विप्रलम्भ के द्वारा उनके मिलन-भाव को परिपुष्ट करना चाहते हों। बहुत करके तो ऐसा मालूम होता है कि कहीं लोग इसे साधारण बात न समझ लें, इसलिये साधारण लोगों के लिये उपदेश और गोपियों का अधिकार भी उन्होंने सबके सामने रख दिया। उन्होंने बतलाया-‘गोपियों! व्रज में कोई विपत्ति तो नहीं आयी, घोर रात्रि में यहाँ आने का कारण क्या है? घर वाले ढूँढ़ते होंगे, अब यहाँ ठहरना नहीं चाहिये। वन की शोभा देख ली, अब बच्चों और बछड़ों का भी ध्यान करो। धर्म के अनुकूल मोक्ष के खुले हुए द्वार अपने सगे-सम्बन्धियों की सेवा छोड़कर वन में दर-दर भटकना स्त्रियों के लिये अनुचित है। स्त्री को अपने पति की ही सेवा करनी चाहिये, वह कैसा भी क्यों न हो। यही सनातन धर्म है। इसी के अनुसार तुम्हें चलना चाहिये। मैं जानता हूँ कि तुम सब मुझसे प्रेम करती हो। परन्तु प्रेम में शारीरिक संनिधि आवश्यक नहीं है। श्रवण, स्मरण, दर्शन और ध्यान से सांनिध्य की अपेक्षा अधिक प्रेम बढ़ता है। जाओ, तुम सनातन सदाचार का पालन करो। इधर-उधर मन को मत भटकने दो।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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