रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 15

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम[1] में दिये गये प्रवचन


यह हम लोग संसार में रहते हैं इस संसार में जड़ प्रकृति का ही सारा काम है। बच्चा खा रहा है तो हम देखेंगे कि यह बच्चा अन्न खा रहा है और प्राकृतिक अन्न खाना दीखता है परन्तु यही चीज जब भगवान में होती है तो भगवान खाने वाले इस बच्चे जैसे नहीं हैं उनका खाना ऐसा नहीं है। यह तो भगवान की उस लीला के लिये अचित्त की-जो चित्त नहीं है, जड है, उस जड़ की प्रतीति होती है, उस चेतन के विलास से।

इसका शास्त्रीय नाम है- ‘चिद्विलास में अचित्त की प्रतीति लीला हेतु से।’ भगवान के रास में भी हम देखते हैं कि स्त्रियाँ आती हैं, स्त्रियों से भगवान बोलते हैं, स्पर्श करते हैं, उनसे बातचीत होती है, छिप जाते हैं, उदय हो जाते है, जलकेलि होती है, क्रीडा होती है। हमारी धारणा में हमारे मस्तिष्क में यह जड़ राज्य बैठा हुआ है तो हम अपनी बुद्धि के अनुसार वहाँ भगवान में भी जडता की कल्पना करके हमारे इस लोक में जैसी चीजें होती हैं उन्हीं का भगवान में आरोप कर लेते हैं। इसलिये दिव्य लीला का जो छिपा हुआ रहस्य है उसे हम जान नहीं पाते- यह क्या है?

यह रस वस्तुतः एक परम उज्ज्वल रस का दिव्य प्रकाश है। तो यहाँ जड जगत की बात तो दूर रही, यह जो ज्ञान और विज्ञान का जगत है उसमें भी रास का प्राकट्य नहीं है। यही बड़ी विचित्र बात है कि जहाँ ज्ञान-विज्ञान प्रकट रहता है वहाँ पर प्रेम प्रकट नहीं होता और प्रेमराज्य के बिना रास नहीं होता। तो जहाँ रास है वहाँ ज्ञान-विज्ञान का जगत भी अप्रकट है। तो जड राज्य की बात ही क्या? बल्कि यहाँ तक कि जो साक्षात चिन्मय तत्त्व है- ब्रह्म। उस चिन्मय तत्त्व में भी इस परम दिव्य उज्ज्वल रस का लेशाभास भी नहीं होता। इस रस की जो स्फूर्ति है वह वहीं होती है जहाँ भगवान की आह्लादिनी शक्ति गोपी बनकर, राधा बनकर, अपनी काय-व्यूह रूपा सारी गोपियों के साथ जब क्रीडा करने में तत्पर होती है तब उन गोपियों के मधुर हृदय में ही इस भावमयी लीला की स्फूर्ति होती है, और कहीं होती नहीं।

इस रासलीला का यथार्थ स्वरूप और परम माधुर्य का आस्वाद तो उन्हीं को मिलता है जिन्हें गोपी-हृदय प्राप्त है। गोपी-हृदय के बिना रासलीला का समझना, कहना, सुनना यह भयावह होता है। न मालूम इसका कोई क्या अर्थ लगा ले। क्यों ऐसा होता है? इसलिये कि जैसे भगवान सच्चिदानन्दमय हैं इसी प्रकार ये गोपियाँ भी परम रसमयी और सच्चिदानन्दमयी ही हैं। यह इस प्रसंग में आया है इस पर बहुत-बहुत महात्माओं ने जो इस रस के जानने वाले हैं, उन्होंने विचार किया है। तो यहाँ गोपी शरीर जो है वह जड़ शरीर नहीं है। सच्चिदानन्दमय है। जिस सूक्ष्म देह से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और जो सूक्ष्म देह कैवल्य की प्राप्ति करता है वह सूक्ष्म देह भी यह नहीं है। जड़ता का यहाँ सर्वथा अभाव है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋषिकेश

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