रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 144

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन

जब भक्तों की सेवाकांक्षा एकदम चरम सीमा पर पहुँच जाती है तब भगवान उनका मनोरथ पूर्ण करते हैं तो उस समय उनसे अपना धीरज रखा नहीं जाता। पर एक बात तो भक्तों को ये बहुत कष्ट देते हैं।

नारद जी में यही बात हुई-पूर्वजन्म की बात उन्होंने कही तो ये बताया सनक, सनन्दनादि नेे कि उन्हें पाँच ही वर्ष की अवस्था के समय मन्त्र दे दिया था और भगवान का चिन्तन करने लगे थे। एक बार उन्हें दर्शन दिया और उनके मन में कामना बढ़ा दी। फिर छिप गये। तो बेचारा नारद दुर्दशाग्रस्त होकर मर गया पर उसको दर्शन नहीं दिये। नारद की क्या दशा हुई कि वह अनिंद्य सुन्दर मधुर मनोहर मूर्ति को देखकर प्रेमानन्द में नारद ने अपने आपको खो दिया और कहा, महाराज! वह रूप दिखाओ, फिर दिखाओ पर वे अन्तर्धान हुए और इतने महान विशाल विरह-सागर में नारद को डुबो दिया कि बेचारा नारद उन्मत्त की भाँति आर्तनाद करता हुआ वन-वन में घूमता फिरा। नारद की आर्त विकलता को देखकर मिले नहीं तब आदेश दिया कि-

मेरे दर्शन के लिये तुम्हारी उत्कण्ठा और बढ़े इसलिये एक बार तुमको दर्शन दिये। जिनको मुझे देखने की उत्कण्ठा हो गयी उनकी क्रमशः सारी कामना, वासना दूर हो जाती है। भगवान का यह स्वभाव है कि वे प्रेमी भक्तों की सेवा ग्रहण करने के लिये रहते हैं बड़े उत्कण्ठित, बड़ी इच्छा रहती है पर भक्तों की सेवाकांक्षा बढ़ाने के लिये धैर्य धारण करके स्वयं निर्लिप्त की तरह रहते हैं मानो उनको कोई लेप है ही नहीं। उनकी कोई इच्छा है ही नहीं। इस प्रकार रहते हैं और उसके बाद जब प्रेमवान भक्तों की तीव्र सेवाकांक्षा अगम्य रूप से प्रकट हो जाती है तब उनके प्रेरणा से भगवान का धैर्य विगलित हो जाता है। वह धीरज जो है-भगवान का धीरज-पत्थर वह गल करके बहने लगता है; फिर वे क्षणकाल भी विलम्ब नहीं कर सकते और उसी क्षण प्रेमी भक्तों के साथ मिलकर उनकी प्रेमानुरुप सेवा ग्रहण करके उनको कृतार्थ करते हैं।

भगवान के इस रासलीला प्रसंग में ठीक यही बात हुई। श्रीवृन्दावन में व्रजवधुओं के बाल्यभाव का अपगम होने के साथ ही आजन्म सिद्ध कृष्ण प्रीति मधुर भाव, मिलनाकांक्षा के रूप में परिणित हो गयी और वे कुल-शीलादि का बन्धन छिन्न करके कृष्ण के साथ मिलने के लिये समुत्कण्ठित हो गयीं। श्रीकृष्ण उनके भावों को देखकर उनके मनोगत भावों को जान भी गये लेकिन असीम धैर्य के आवरण में अपनी मिलनाकांक्षा को उन्होंने ढ़क लिया, गोपन कर लिया और इनके अतिरिक्त व्रज में जो समस्त अल्प वयस्का गोप कुमारियाँ रहीं जिन्होंने श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने की उत्कण्ठा से कात्यायिनी व्रत किया था और जिनकी सगाई हो चुकी थी उस ब्रह्ममोहन लीला में; वे सब-की-सब श्रीगोपकुमारियाँ वहाँ आ गयीं। वे सब उत्कण्ठित पर भगवान ने धैर्य इसलिये रखा-कि उन सबके प्रेम का वेग और बढ़े। उस प्रेम के वेग में कहीं कोई कल्पना भी संसार की रही हो तो कल्पना भी नाश हो जाय। भगवान के अतिरिक्त इनके मन में, संसार की किसी वस्तु की कल्पना का लेश-गन्ध न रह जाय। इसलिये भगवान ने धैर्य धारण करके विलम्ब किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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