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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
अनन्त लीलामय श्रीभगवान की अपार कृपा से इस श्लोक के कुछ भावों का हम लोगों ने आनन्द लिया। सार बात यही है कि ऐश्वर्य वीर्यादि षडविध महाशक्ति निकेतन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमाया का पूर्ण विकास करके अपनी ह्लादिनी शक्ति की घनीभूत मूर्तियाँ परम प्रेमवती व्रजरमणियों के साथ रासक्रीड़ा करने की इच्छा की-यह श्लोक का तात्पर्य है। सवेश्वर निकेतन और सर्वदा पूर्णकाम होने पर भी उनका स्वभाव सिद्ध भक्त वात्सल्य प्रेमाधीनता यह ऐसी है कि भगवान सदा ही प्रेमी भक्तों का प्रेम संकल्प पूर्ण करने के लिये व्यग्र रहते हैं। इनकी व्यग्रता, इनकी भक्तधीनता का प्रमाण है और यह एक दिन नहीं है यह भगवान ऐसे हैं कि मानो बैठे हैं। जिस समय तमाम तात्त्विकों से साथ दरबार में वहाँ यदि किसी भक्त का रोना इन्हें सुन जाये तो सारे तात्त्विकों के साथ छोड़कर ये भाग-दौड़ते हैं। यह इनका स्वभाव है, भक्ताधीनता स्वभाव है। इसलिये परम प्रेमवती श्रीव्रजरमणियों के साथ रमण करने की इच्छा में किसी प्रकार का प्रतिबन्ध इनके लिये बाधक हो-यह कुछ नहीं। परन्तु तब इन्होंने इतने दिनों तक इच्छा पूरी क्यों नहीं की? यह प्रश्न आता है न! जब कोई प्रतिबन्धक नहीं था इनमें तब फिर इसमें देर क्यों की? तो श्रीमद्भागवत में इस प्रकार का वर्णन है कि इस प्रकार का अवसर जब आया, काल आया तब इच्छा की। ‘शरदोत्फुल्ल मल्लिकाः ता रात्रीः वीक्ष्य भगवान रन्तुं मनश्चक्रे’ शरद्कालीन प्रफुल्ल मल्लिकादि की शोभा से परिशोभित रात्रि को देखकर भगवान ने रमण की इच्छा की। इसमें यह कहा गया कि भगवान स्वजन प्रेम-विवर्धन-चतुर हैं अर्थात अपने जनों के प्रेम को बढ़ाने में चतुर हैं। यह जानते हैं कि प्रेम कैसे बढ़ता है; और बढ़े हुए प्रेम में विशेष आनन्द आता है; जैसे जरा-सी भूख में कोई खा ले तो भूख ज्यादा थी नहीं क्या आनन्द आया लेकिन जब बड़े जोर की भूख लग जाय, कई दिन खाने को हो जाय तब यदि खाने को मिले तो बड़ा रसास्वादन होता है। इसीलिये भक्त मनोरथ की पूर्ति के लिये सर्वदा ये व्यग्र और सचेष्ट रहने पर भी अपने चरणाश्रित भक्तों की सेवाकांक्षा बढ़ाने के लिये धीरज रखते हैं। इसलिये कि इनके स्वभाव में भक्त-प्रेम-विवर्धन की इच्छा रहती है, नहीं तो धीरज नहीं रखते। दक्ष हैं इस काम में। इसलिये भगवान उनकी सेवाकांक्षा की वृद्धि के लिये अपनी व्यग्रता को ढ़क करके धीरज के द्वारा निश्चेष्ट रह जाते हैं। लोगों को उस समय दीखता है कि ये बड़े निष्ठुर हैं। ये प्रेमियों की इच्छा पूर्ण करते ही नहीं। यह चुपचाप बैठे रहते हैं। इनको क्या पता कि प्रेमियों के मन में क्या बीत रही है? ये तो निष्ठुर-से बैठे हैं। लेकिन उनके मन में क्या बीतती है इसको वे ही जानते हैं। वे तो धैर्य के द्वारा अपने इस मनोरथ को, अपनी इस व्यग्रता को किसी प्रकार से ढ़के रहते हैं। क्यों ढ़के रहते हैं? कि इससे भक्तों की व्याकु लता और बढ़े तथा वे भक्त सेवाकांक्षा के लिये सर्वथा अधीर हो जायँ, और पुकार उठें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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