रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 141

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन

गोपरमणियों के प्रेम का इतना महान आकर्षण कि आत्माराम शिरोमणि-आत्मारामों को आत्मरमण प्रदान करने वाले, आत्मेच्छुओं को आत्मा का दान देने वाले, ब्रह्म दर्शनकारी लोगों को ब्रह्म में प्रतिष्ठित कराने वाले, ब्रह्म स्वरूपभूत और ब्रह्म के भी आधार भगवान में स्वाभाविक दिव्य भाव-विकार का उन्मेष हुआ। निरीह भगवान ने वीक्ष्य भगवान ने मिल की इच्छा और चेष्टा की। यहाँ पूर्णकाम भगवान सकाम हो गये। यह विशेषता है भक्तों के प्रेम की, त्यागमय दिव्य प्रेम की। इसमें नयीं बात नहीं। यह भगवान के गुण ऐसे हैं और इन गुणों की तरफ जिनका आकर्षण हो जाता है वे महामुनि भी भगवान से प्रेम करते हैं। इन महामुनियों के प्रेम को पराकाष्ठा पर पहुँचाने के लिये आत्मारामों को आत्मारामता देने वाले भगवान भी इस प्रकार से लीला करने लगते हैं।

आत्मस्वरूपानन्दास्वादन में निमग्न आत्माराम मुनिगण समस्त विधि-निषेधों से अतीत होकर भी अहैतु की भक्ति करने को बाध्य होते हैं, भगवान के चरण-भजन का। उनमें किसी प्रकार का प्रयोजन न होने पर भी वे भजन क्यों करते हैं? इस प्रश्न का उत्तर वहीं पर दिया कि ‘इत्थं भूतगुणो हरिः’[1] वे आत्माराम है उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है, उन्हें किसी बात की इच्छा नहीं है तब फिर उन्होंने क्यों भगवान की भक्ति की? क्यों भजन किया? इसलिये किया कि भगवान में ऐसे गुण है जो आत्माराम मुनियों को भी खींच लेते हैं। पर यहाँ पर तो आत्मारामों के भी मनोहारी-मन को हरण करने वाले हरि हैं। यहाँ कौन-सी ऐसी बात हो गयी कि जो उन्होंने ऐसी इच्छा की, भजन किया। भगवान तो नित्य तृप्त हैं आप्तकाम हैं निर्विकार हैं, निरीह हैं, सच्चिदानन्दघन विग्रह हैं उन्होंने गोपरमणियों के साथ रमण की इच्छा की इसके कारण का अनुसंधान करने पर भगवान का स्वरूप-श्रुति प्रतिपादित भगवान का रूप, भगवान का ऐश्वर्य सभी सिद्ध होता है कि ऐसा नहीं होना चाहिये इनमें यह कैसे हो गया? सीधी बात यह है कि जैसे ‘इत्थं भूतगुणो हरिः’ भगवान के गुण आत्माराम मुनियों को खींच लेते हैं इसी प्रकार ‘इत्थं भूत प्रियमानो हि व्रजदेव्याः’- यह व्रजदेवियों का प्रेम है कि जिस प्रेम ने भगवान को बाध्य कर दिया इच्छा करने के लिये।

व्रजरमणियों के प्रेम की ऐसी विशेषता, ऐसे गुण जिससे अनिर्वचनीय भगवान सर्वातीत भगवान, उनको आकृष्ट कर उनमें प्रवृत्त हो गये। भगवान का एक नाम है ‘आत्मारामगणाकर्षी - आत्माराम मुनियों के मन को भी खींच लेने वाले। श्रीकृष्ण का एक नाम है - आत्मारामगणाकर्षी - यह भगवान व्रजरमणियों के सर्वातिशायी प्रेम के किसी अनिर्वचनीय गुण से आकृष्ट होकर उनके साथ रमण में प्रवृत्त होते हैं और साफ आता है वहाँ पर कि उनकी आत्मारामता में कोई कसर नहीं। यहीं पर आवेगा कि ‘आत्मारामोऽप्यरीमत्’[2] भगवान आत्माराम होकर के भी प्रेमवती गोपियों के साथ रमण करते हैं। भगवान की आत्मारामता का-आत्मारामतादिगुणों का अनुसंधान करने पर जो लोग भगवान की इस रमणलीला का तत्त्व नहीं समझ सकते वे कहते हैं कि यह मिथ्या है, यह मायिक है, यह कल्पना है, यह अभिनय है, यह नाट्य है, यह आध्यात्मिकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 1।7।10
  2. श्रीमद्भा. 10।29।42

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