रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 14

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम[1] में दिये गये प्रवचन


असुर-मारण लीला तो भगवान के विष्णु अवतार का कार्य है। जब स्वयं भगवान आये तो विष्णु भगवान भी इसमें समा गये। नारायण भी समा गये, भगवान में सितकेश कृष्ण भी समा गये। सारे अवतारों के कार्य भगवान के द्वारा ही हो गए। भगवान स्वयं ही भूमण्डल पर अवतीर्ण हुए और अवतीर्ण होकर उन्होंने यह लीला की। इस रासपञ्चाध्यायी में मानवीय भाषा में वर्णन है और वर्णन में वंशी ध्वनि है सबसे पहले, इसके बाद गोपियों का अभिसार है।

अभिसार कहते हैं भगवान का आवाह्न मिलने पर भगवान से मिलन के लिये जो चित्त में अत्यन्त व्यग्रता उत्पन्न होती है और वह व्यग्रता सब कुछ भुला देती है तो सब कुछ भूलकर भगवान से मिलने के लिये जो व्यग्र होकर दौड़ पड़ता है उसका नाम अभिसार है। पहले भगवान की वंशी ध्वनि होती है, उसके बाद गोपियों का अभिसार होता है, गोपियाँ निकल पड़ती हैं। फिर भगवान श्रीकृष्ण के साथ बातचीत होती है। दिव्य रमण हैं। राधाजी के साथ भगवान श्रीश्यामसुन्दर का अन्तर्धान है, फिर प्राकट्य है, फिर गोपियों के द्वारा दिये हुए वस्त्रासन पर भगवान का विराजना है, फिर गोपियों ने कूट प्रश्न किया है कि आप कौन हैं? उसका उत्तर है फिर रस-नृत्य है, क्रीडा है, जलकेलि है, वन-विहार है। उसके बाद शुकदेव और परीक्षित के प्रश्नोत्तर हैं, फिर इसकी समाप्ति है। इतने प्रसंग इसमें हैं। इसमें प्रसंग हैं मानवीय भाषा में ही परन्तु यह मानवीय क्रीडा नहीं है।

एक बात पहले यह समझने की है, रास पञ्चाध्यायी पर कुछ कहने से पहले इन चीजों को समझ लेना, जान लेना आवश्यक है कि भगवान का जो शरीर है यह जड़ नहीं है। भागवत में आया है कि-

‘स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि’[2]

हमारे शरीर की भाँति भगवान का शरीर जड़ नहीं है। अस्थि, मज्जा, मेद इत्यादि से यह बना हुआ नहीं है। असल में तो जड की सत्ता ही नहीं है। जड़ की सत्ता है। यह होती है केवल जीव दृष्टि में। भगवान की दृष्टि में जड़ की सत्ता नहीं है। यह देह और यह देही है। इस प्रकार का जो भेद है यह भी प्रकृति के राज्य में होता है। भगवान प्रकृति से परे है, जो अप्राकृतिक लोक है उसकी प्रकृति भी अप्राकृत है, चिन्मयी है।

हमारे यहाँ जिस प्रकृति से संसार का उदय होता है, संचालन होता है इसमें तीन गुण रहते हैं- सत्त्व, रज और तम। इन्हीं तीनों गुणों की लीला चलती है। भगवान के दिव्य धाम में जो प्रकृति है वह भी चिन्मय है। वहाँ सब कुछ चिन्मय है। वहाँ अचित की प्रतीति तो केवल भगवान की लीला सिद्धि के लिये होती है। इसलिये यों कहना चाहिये कि जड राज्य में रहने वाला जो हमारा मस्तिष्क है, यह जब भगवान की अप्राकृत लीलाओं के सम्बन्ध में विचार करने लगता है; तब वह अपनी पूर्व वासनानुसार जड़ राज्य की धारणाओं को, कल्पनाओं को, क्रियाओं को देखकर वैसा ही आरोप करता है। शायद यह बात समझ में न आयी हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋषिकेश
  2. 10।14।2

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