रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 136

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

Prev.png
स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन

परब्रह्म परमात्मा जिसके हाथ-पैर नहीं वह चलता भी है और ग्रहण भी करता है। इसकी आँखें नहीं पर वह सब कुछ देखता है। उसके कान नहीं, पर वह सब सुनता है। इससे स्पष्ट है कि सर्वशक्तिमान श्री भगवान सर्वदा ही समस्त विषयों का दर्शन श्रवण आदि करते हैं, करते ही हैं। पर हमारे आँखों की भाँति किसी इन्द्रिय के द्वारा किसी निर्दिष्ट विषय का श्रवण दर्शनादि नहीं करते हैं।

परमहंस शिरोमणि श्री शुकदेवजी महाराज सर्वशक्तिमान श्री भगवान की रासलीला कथा के वर्णन प्रसंग में यदि ‘भगवान रिरंसामास किंवा रन्तुं एष’ कह देते तो मन-सम्बन्ध शून्य और किसी विषय विशेष से सम्बन्ध शून्य सर्वतोमुखी इच्छा की बात वहाँ होती। सर्वतोमुखी की चीज यहाँ है नहीं, किन्तु वह गोपियों के साथ जो रासक्रीडा करने की इच्छा की यह बात धारण में नहीं आती। तो ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ स्पष्ट भाषा में कहने से यह बात मालूम हुआ कि उनकी इच्छा, इच्छा शक्ति के प्रभाव से सर्वदा सर्वविषयिनी इच्छा नहीं है। यह इच्छा भक्ताधीनता से परिभावित अन्तःकरण की भक्त मनोहर पूर्तिकारिणी वृत्ति का पूर्ण विकास है।

भगवान मन के वश में नहीं हैं परन्तु भगवान तो भक्तवांक्षा कल्पतरु हैं। तो भक्त का मनोरथ पूर्ण करने वाली भागवती वृत्ति है; मन की वह वृत्ति नहीं। यहाँ कहनी है मन की बात कहनी है साथ में भगवान के मन की बात भी। वे इस सम्बन्ध के अनुसार किया करते हैं प्रपंन्च की भाँति। वे क्रिया करते हुए भी निष्प्रपन्च ही है। इसलिये इस बात को खोल देते हैं कि यह क्या है? यह अन्तःकरण की वह चीज है जो भक्ताधीनता से परिभावित भक्त-मनोरथ को पूर्ण करने वाली भागवती वृत्ति है उसका पूर्ण विकास यहाँ पर है। यह नहीं कि किसी इच्छा के वश में होकर भगवान किसी वस्तु को पाने की इच्छा करते हैं।

भगवान अपनी इच्छा-शक्ति के प्रभाव से सर्वदा सर्वविषयक इच्छामय होते हुए भी भक्ताधीनता के गुणवश मन के द्वारा यहाँ अभीष्ट पूर्ण करने की इच्छा करने में प्रवृत्त हुये। ‘रन्तुं मनश्चक्रे।’ यहाँ साधारण भाव से दर्शन, श्रवण, गमन इच्छा इत्यादि जन्य चक्षु, कर्ण, पद, मन आदि कि साथ इनका संग और किसी निर्दिष्ट विषय के संग के साथ भगवान का संग कदापि न होने पर भी भक्ताधीनता का गुण प्रकाश करके भक्त के मनोरथ को पूर्ण करने के लिये भगवान ने यह लीला की।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः