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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
ऐसा प्रसंग आता है कि जिसमें पतिव्रता सती शिरोमणि के रूप में अरून्धती, अनुसूया, सती इत्यादि ने मिलकर राधा की पूजा की है। इसलिये जितना राधा में निजसुख विस्मरण और परित्याग है जो केवल पतिसुख चाहने वाली देवियों में होना चाहिये वह अन्य कहीं नहीं है। निजसुख की कभी-न-कभी कुछ-न-कुछ वांछा किसी-न-किसी रूप में रहती है। इसीलिये यह नाम तो परकीया है पर परकीया भाव होने पर भी यह भाव-परकीया है। परकीया से निजसुख की इच्छा रहती है। उसका इसके साथ अत्यन्त विरोध है। यह पतिव्रताओं के द्वारा पूजित हैं। हमारे पूज्य करपात्री जी महाराज कहा करते थे कि यह अनुसूया, अरून्धती, पार्वती इत्यादि जो देवियाँ हैं ये राधा की उपासना किया करती हैं इसलिये कि त्याग की शिक्षा मिले। परकीया भाव क्या है? इसमें रस का उल्लास होता है और व्रज के अतिरिक्त यह रस कहीं नहीं है। व्रज वधुयें इस भाव की सीमा हैं और राधा जो हैं ये सीमातिरेक-सीमा को भी पार किया जो महाभाव है वह इनमें हैं। श्रीगोपांगनाओं के भावों का आत्मप्रकाश निरूपण करते हैं-प्रीति, स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग भाव और महाभाव। जहाँ प्रीति हैं वहाँ से प्रारम्भ होता है गोपी भाव और गोपी भाव की पूर्ण-परिणति है महाभाव में और महाभावरूपा श्रीराधा जी मानी गई हैं। उनमें मोहन और मादन नामक दो भेद हैं जो राधाजी के अतिरिक्त और कहीं अन्यत्र सम्भव नहीं है। ऐसा मानते हैं। इसलिये इस रासलीला की जहाँ पर चर्चा हो वहाँ पर यह मानना चाहिये कि यह भाव जगत की दिव्य चीजें हैं। इनका सम्बन्ध हमारे तरह के शरीरों के साथ नहीं है तो-
यह जो प्रेम है यह प्रौढ़ है, निर्मल है और सर्वोत्तम है। जिस प्रेम में कहीं भी किसी भी प्रकार की कामना का, स्वसुख की इच्छा का कलंक है वह प्रेम निर्मल नहीं होता है। वह प्रेम उत्तम ही नहीं चरमोत्तम कहाँ से होगा। वह तो निकृष्ट काम कलुष चित्त की विकार लीला है - प्रेमलीला नहीं। यहाँ प्रेम केवल श्रीकृष्ण के माधुर्य का आस्वादन, श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिये है। इस भाव से श्रीगोपांगनाओं की यह मनोभिलाषा और उनकी मनोभिलाषा की पूर्ति के लिये श्रीकृष्ण का उनको वंशीध्वनि के द्वारा आवाहन करना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चै. च. 1।4।44
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