रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 128

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


कहते हैं कि-‘अनयाऽऽराधितो नूनं भगवान हरीश्वरः’[1] इस श्लोक की व्याख्या में हम भी कहेंगे कुछ। यहाँ योगमाया शब्द का उद्देश्य यही मालूम होता है कि राधिका को साथ लेकर भगवान ने ‘रन्तुं मनश्चक्रे।’

योगस्य संभोगस्य च मायः मानं पर्याप्त यत्र सा योगमाया श्रीराधा’

कहते हैं यह मधुररस के मिलन का रसास्वादन है। यह रस शास्त्र की बात है। मिलन का नाम है संभोग और अमिलन का नाम है विप्रलम्भ। तो मधुर रसके मिलन के रसास्वादन का नाम ही संभोग है। श्रीराधा के साथ श्रीकृष्ण का जिस प्रकार का मिलन रसास्वादन होता है वैसा रसास्वादन भगवान की किसी लीला में, किसी श्रीविग्रह में, किसी प्रेयसी के साथ कभी सम्भव ही नहीं होता। इसका कारण देखने पर मालूम होता है यह विषय ऐसा है कि जो समझने का तो है पर है थोड़ा-सा कठिन।

कहते हैं कि भगवान की प्रेयसियों में तीन श्रेणियाँ हैं - लक्ष्मी, महीषी और गोपी। इनमें लक्ष्मी जो है वह भगवान नारायण मूर्ति की प्रेयसी हैं, महिषियाँ भगवान राघवेन्द्र, द्वारिकानाथ श्रीकृष्ण, मथुरानाथ श्रीकृष्ण इन भगवान की लीला-विग्रह की प्रेयसी है। नारायण रूप की प्रेयसी लक्ष्मी आदि और महाराज-लीला-विग्रह-महाराज के रूप में भगवान के लीला की प्रेयसी यह महिषियाँ। ये भगवान रामचन्द्र रूप की, द्वारिकाधीश के रूप की प्रेयसी और गोपियाँ व्रज बिहारी स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी हैं।

भगवान का यह तीन प्रेयसी वर्ग है। इन महिषियों में तीनों ही भगवान को अपना निजकान्त मानती हैं और तीनों ही भगवान की मधुर भाव से विविध प्रकार से सेवा करती हैं। लक्ष्मी जी, राजा की पटरानियाँ आदि भी और गोपियाँ भी। यह सभी उनको अपना कान्त मानती हैं और मधुर भाव से सेवा करती हैं इनमें जो लक्ष्मी जी हैं वह तो अनादिकाल से ही भगवान की नित्य कान्ता हैं और वे मधुर भाव से ही नित्य सेवा परायण रहती हैं। इसलिये लक्ष्मी जी नारायण-वक्ष-विहारिणी हैं। भगवान के वक्षस्थल पर श्रीलक्ष्मी हमेशा रहती हैं। यह वक्ष-विलासिनी होने पर भी ईश्वरज्ञान से नारायण चरण सेवा में लगी रहती हैं। लक्ष्मी जी का कभी ईश्वर ज्ञान छिपता नहीं। ईश्वर ज्ञान से लक्ष्मीजी नित्य मधुर भाव से सेवा परायण हैं। इनका नारायण के साथ मिलन होने में न आदि है न अवसान है। अनादिकाल से अनन्तकाल तक ये भगवान श्रीनारायण के साथ रहती हैं। इनकी प्रेम सेवा में न तो मिलनोत्कण्ठा है और न विरहास्वादन है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।30।28

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