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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
कहते हैं कि व्रजरमणियों के सामने भी श्रीकृष्ण की योगमाया ने वंचना की चेष्टा की जिससे वे लौट जायें। यह तो चेष्टा नहीं है यह प्रेम का गौरव, प्रेम की महिमा बढ़ाना है कि जगत की किसी वस्तु में कहीं पर उनका त्याग अवशेष नहीं रह गया। यह वंचना थी पर यह वंचना जो है यह व्रजरमणियों के प्रगाढ़ विशुद्ध अनुराग के सामने पराजित हो गयी। फलवती नहीं हो सकी। श्री गोपियों ने भगवान का आदेश सुनकर के कहा - श्रीकृष्ण! तुम्हारे इस चरण प्रान्त को छोड़ करके एक पद भी लौटे जाने की हम लोगों की शक्ति नहीं है। तुम यदि हमें सेवा प्रदान करने से वंचित करोगे तो बस तुम्हारे चरण का चिन्तन करते-करते इस चरण प्रान्त में ही हमारा जीवन विसर्जित हो जायेगा। उससे यह तो होगा कि मरण काल में तुम्हारे चरण में रहेगीं तो जन्मान्तर में तुम्हारी प्रेयसी बनेंगी ही। यही सही कि मरकर पायेंगे तुमको, सेवाधिकार मिलेगा और इसके सिवा दूसरी गति नहीं। इस प्रकार का अनुराग-विशुद्ध अनुराग। विशुद्ध का अर्थ यही है कि जिसमें किसी प्रकार की चाह की कामना की अशुद्धि न हो। यह गन्दे सांसारिक काम की तो बात ही तुच्छ है। अन्तःकरण की शुद्धि के पहले ही इसका त्याग हो जाता है। जिसमें कोई भी किसी भी प्रकार की कामना का कलंक न रहे, अशुद्धि न रहे वह है विशुद्ध अनुराग। गोपांगनाओं के विशुद्ध अनुराग और उनकी अनन्य उत्कट सेवाकांक्षा वन्दनीय है। अनन्य उत्कट-अनन्य तो हैं परन्तु उसमें यदि उत्कटता नहीं होती, तीव्रता नहीं होती तो भी देर हो जाती। मिलेगा वही पर आज नहीं फिर कभी। पर वह इतना तीव्र आवेग है कि क्षण भर का वियोग सहन नहीं कर सकता। एक तो विशुद्ध प्रगाढ़ अनुराग और दूसरे अनन्य उत्कट सेवाकांक्षा इसके द्वारा भगवान की योगमाया का दर्प चूर्ण हो गया। इस योगमाया ने सबको ठगा। बड़े-बड़े लोगों की वंचना की कि ले लो मुक्ति, ले लो भुक्ति, तुमको राज्य दे देंगे, जाओ। उपनिषदकाल में नचिकेता यमराज के सामने जब गया तो वह तो जीत गया पर बहुत थोड़े लोग ऐसे होते हैं जो इस योगमाया के सामने विजय प्राप्त करें। हार ही जाते हैं। (इस योगमाया की बात सुनकर के योगनिद्रा में नहीं फँसना चाहिये और नींद आवे तो बाहर चले जाना चाहिये।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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