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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
जहाँ प्राण निकले, प्राणों का उत्क्रमण हुआ नहीं और वहीं-के-वहीं उनके सूक्ष्म देह का नाश हो गया और वो परब्रह्म में विलीन हो गये। योगी भी अपने हृदयेष्ठ परमात्मा के साथ जीवात्मा की एकात्मता करके वहीं पर विलीन हो जाते हैं। कर्मी भी अपने-अपने कर्मफलों के अनुसार देव तिर्यगादि विविध देह धारण करके इन्हीं ब्रह्माण्डों में रहते हैं; और लोकों में नहीं जाना पड़ता उन्हें। किन्तु गोपी भाव से श्रीकृष्ण की सेवा प्राप्ति की लालसा से जो लोग रागानुगाभक्ति करते हैं वे न तो परब्रह्म में विलीन होते हैं और न वे देव, तिर्यगादि देह धारण करके ब्रह्माण्ड में रहते हैं। उनकी साधना की जो सिद्धि है वह गोपी देह से श्रीकृष्ण की सेवा प्राप्ति में ही पर्यवसित होती है। गोपी गर्भ से जन्म ग्रहण करके वे लोग नित्य सिद्ध गोपियों का संग प्राप्त करते हैं और उसके बाद भगवान की नित्य सेवा में वे अधिकारी होकर संलग्न होती हैं। यह श्रीकृष्ण का धाम जो है यह धाम-रासधाम, विलासधाम, लीलाधाम-यह ब्रह्माण्ड से बहुत दूर है। इसकी लोक कल्पना भी है गोलोक, व्रजलोक। और लोक कल्पना जहाँ नहीं है वहाँ भी यह ब्रह्माण्ड से बहुत दूर है क्योंकि ब्रह्माण्ड की जो कुछ साधन-सामग्री-सामान है उसमें नहीं है। यहाँ का काम वहाँ नहीं होता है। यहाँ से बहुत दूर। इस जगत से बहुत दूर वह प्रेम का धाम है। रागानुगाभक्ति वालों को इस ब्रह्माण्ड में नहीं रहना पड़ता। बहुत दूर लीला धाम में पहुँच जाते हैं और इसे लोक-दृष्टि से देखे तो अनन्त ब्रह्माण्ड और मायासमुद्र की बात तो है। कारणार्णव-कारण समुद्र उसके बाद है, सिद्धलोक, उसके बाद है परम व्योम वहाँ अनन्त वैकुण्ठ की स्थिति है और उसके बाद है भगवान का लीलाधाम-व्रजलोक। वहाँ अपनी इच्छा से कोई जा सके या साधना से यह नहीं हो सकता। गोपीभाव से श्रीकृष्ण की प्रेम सेवा करने का लोभ जिनके मन में जागृत हो जाता है और जो गोपियों के समान अपने को बना लेते हैं वे ही उस साध्यापि प्रेमभाव में पहुँच सकते हैं और लोग नहीं पहुँच सकते। इसलिये श्रीभगवान जब लीला प्रकट करते हैं तो उनकी सेवा प्राप्ति की उत्कंठा रखने वाले साधक योगमाया की सहायता से वहाँ प्रकटलीला में गोपी गर्भ से प्रकट होते हैं और फिर नित्य सिद्धा गोपियों के संगी की महिमा से भाव परिपक्व होने पर रासलीला में श्रीकृष्ण के साथ मिल जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बृहदारण्य उप. 4।4।6
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