स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन
फिर दूसरे प्रकारान्तर से इसके अर्थ का स्वाद लिया जा सकता है। ‘अगेषु स्थावरेषु वृक्षलता विश्वपि या मायाकृपा ता अगमाया तामुपाश्रिता भगवान रन्तुं मनश्चक्रे।’ कहते हैं श्रीभगवान ने जितनी लीलायें की, जहाँ-जहाँ अवतीर्ण हुये वहाँ कृपा का सम्भार लेकर ही अवतीर्ण हुये। किन्तु श्रीकृष्णलीला में वृक्षलताओं को भी कृपादान देकर कृतार्थ किया। यह अयाचित कृपावर्षण बड़ा अद्भुत है।
पद्मनाभ भगवान ने हजारों-हजारों अवतारों में अनेक महाशक्तियों को प्राकट्य किया। हजारों अवतार हुये और हजारों प्रकार के महाशक्तियों से परिपूर्ण पर श्रीकृष्ण के बिना ऐसा कौन हुआ जिसने वृक्ष-लतादि पर भी प्रेम-सिंचन किया। उनको भी प्रेमरस से नहला दिया, अभिसिक्त कर दिया। रासलीला में जब भगवान अन्तर्धान हो जाते हैं तो श्रीगोपांगनाएँ वन-वन में उनको ढूँढती फिरती हैं। तब इनके कृपास्पर्शजनित प्रेमानन्द से पुलकित वृक्ष-लताओं को देखकर-उन्होंने देखा कि यह वृक्ष-देह नहीं पुलकित देह हो रहे हैं-इनके रोमांच क्यों हो रहा है? तो रोमांच इसलिये हो रहा है वृक्ष-लताओं के शरीर में कि श्यामसुन्दर उनको स्पर्श कर देवें। श्यामसुन्दर के स्पर्श से वृक्ष-लतादि प्रेमानन्द से पुलकित हो गये हैं।
- पृच्छतेमा लता बाहूनप्याश्लिष्टा वनस्पतेः।
- नूनं तत्करजस्पृष्टा बिभ्रत्युत्पुलकान्यहो।।[1]
यह देखकर गोपांगनायें कहने लगीं कि देखो, ऐ सखी! वृक्षशाखावलम्बिनी यह जो लता है-वृक्ष की शाखा का अवलम्बन करके फैली हुई निश्चय ही यह श्यामसुन्दर के कर-स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त कर चुकी है। भगवान इसे छू गये हैं इसीलिये यह पुलकित होकर और मृदुल-मृदुल पवन के आन्दोलन से नाच रही है। यह बेल जो नाच उठी यह उन्मत्तता कहाँ से इसमें आ गयी। कहा कि भगवान छू गये, उनका स्पर्श हो गया। श्रीकृष्ण की इस प्रकार की कृपा वृक्ष-लतादि के ऊपर अनन्त हुई।
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