रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 109

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


कहते हैं कि भक्तनिष्ठ कर्मयोगादि अनुष्ठान में भगवतकृपा के द्वारा सम्भव है इन्द्रपद मिल जाता है, ब्रह्मा का पद मिल जाता है किन्तु हमेशा के लिये नहीं। पुण्य क्षय होते ही फिर आना पड़ता है। योगी, ज्ञानी आदि निश्चित ही भगवान की कृपा से मुक्त हो जाते हैं पर वो कृपा का भोग नहीं कर पाते क्योंकि संसार की मुक्ति का अर्थ ही है सच्चिदानन्द स्वरूप सिन्धु में विन्दुवत विलीन हो जाना।

ज्ञानी, योगी पुरुष जब अपने ज्ञान का फल तत्त्वज्ञान पाते हैं तो क्या होता है कि जो सच्चिदानन्द रूपी स्वरूप सागर हैं उसमें बूँद की तरह जाकर मिल जाते हैं, सागर बन जाते हैं। भगवान की कृपा के बिना किसी को सेवाधिकार नहीं मिलता। अतएव भगवान की कृपा का प्रत्यक्ष भोग वह नहीं कर सकते। अचल होकर ही रहती है वह कृपा किन्तु भगवान ने अपनी कृष्ण लीला में जिन पर कृपा की, उन पर अगमाया ही की। निश्चल कृपा की। अन्य अवतारों में सबमें भगवान की कृपा तो समान ही है पर इस प्रकार भगवान ने दिखाया नहीं अपनी कृपा का अगमायास्वरूप।

इस सम्बन्ध में औरों की बात छोड़ दे, पूतना जो है यह तो जहर लगाकर मारने आयी पर पूतना को मारकर इन्होंने जननी की गति दे दी। वहाँ पर भगवान ने अगमाया का प्रकाश किया। जो श्रीकृष्ण इस अगमाया को लेकर जगत में अवतीर्ण हैं उनके कृपा भण्डार में मानों अगमाया के सिवा और कुछ है ही नहीं। वे जिस पर कृपा करते हैं वह अगमाया ही कतरे हैं-निश्चला ही करते हैं। तो श्रीकृष्ण ने अपनी समस्त लीलाओं में अगमाया का वितरण किया। इसमें कोई सन्देह नहीं किन्तु रासलीला में तो मानों उन्होंने अगमाया के भण्डार का दरवाजा ही खोल दिया, लुटा दिया। इसलिये उन्होंने रासलीला में ‘न परयेऽहं निरवद्यसंयुजां’[1] इत्यादि श्लोकों में गोपियों के लिये कहा कि ब्रह्मा की लम्बी आयु पर्यन्त भी यदि मैं प्रयत्न करूँ तो तुम्हारे प्रेम का बदला नहीं चुका सकता। तुम्हारा प्रेम सदा के लिये मुझे ऋणी बनाकर रखेगा। गोपियों पर कृपा करने जाकर मानो भगवान ने अपनी कृपा का भण्डार निःशेष कर दिया और फिर ऋण स्वीकार कर लिया। अपनी कृपा का सारा भण्डार देकर भी कहा भई! अभी ऋण उतरा नहीं। ऋण तुम्हारा नहीं गया। ऐसी अगमाया भगवान ने कहाँ प्रकट की? अपने गीता के वाक्य को बदल दिया यहाँ भगवान ने। भगवान की प्रतिज्ञा है-

‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’[2]

प्रतिज्ञा है किन्तु-‘न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां’ अरे! सेवा का बदला चुका सकते, वैसा ही भजन कर सकते भजन के बदले में, तो यह कहने की क्या आवश्यकता थी कि मैं ऋणी रह गया। इस प्रकार से भगवान अपनी अगमाया का-निश्चलाकृपा का प्रकाश करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।32।22
  2. गीता 4।11

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