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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
अयः अर्थात ‘अयोगत गच्छतीति अयोगा’ इस प्रकार से व्याख्या करने पर मालूम होता है अयः अर्थात लौह-लोहे के समान जिसकी गति है उसको कहते हैं अयोगा। अयोगात गच्छतीति-लोहे के समान जिसकी गति है भगवान की जो यह माया, कृपा है यह अयोगा है। जैसे अयस्कान्तमणि अपनी शक्ति से लोहे को खींचकर अपने में संयुक्त कर लेता है इसी प्रकार प्रेमी भक्तों को देखकर भगवान की कृपा उनकी ओर दौड़ पड़ती है खींचने के लिये। कहते हैं कि लौह जिस प्रकार से चुम्बक की ओर स्वभावतः ही दौड़ता है-लोहे को दौड़ाना पड़ता नहीं। चुम्बक सामने आ गया तो लोहा दौड़ गया-स्वभावतः। इसी प्रकार से भगवान की कृपा भी प्रेमी भक्तों के सामने दौड़ती है मानों भगवान की कृपा तो लोहा है और भक्तों का प्रेम चुम्बक है। तो जैसे चुम्बक को लोहे का आवाहन नहीं करना पड़ता। चुम्बक कहता नहीं लोहे को कि तुम हमारी तरफ आओ। चुम्बक ख़ाली लोहे के सामने हो जाता है। इसी प्रकार से भगवान की कृपा भी स्वतः प्रवृत्त होकर अपने आप से चलकर प्रेमी भक्त की ओर दौड़ती है। लेकिन एक बात यह हम लौह-चुम्बक के दृष्टान्त में देखते हैं कि यदि लोहा परिमाण में बहुत ज्यादा हो-हजारों मन हो और चुम्बक तोला भर हो तो वह चुम्बक खींचने वाला होने पर इतने लोहे को नहीं खींच सकता। इसी प्रकार से भगवान की कृपा का परिमाण भी इतना ज्यादा है यह लोहा भी इतना भारी है-भगवान की कृपारूपी लोहा इतना अधिक है-कृपा की शोभा अनन्तता में ही है-भगवान की कृपा अगर इतनी-सी हो तो वह भगवान की कृपा नहीं हुई। भगवान हों तब तो उनकी कृपा सीमित हो जाय परन्तु जिस प्रकार से भगवान अनन्त हैं उसी प्रकार से भगवान की कृपा भी अनन्त है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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