रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 106

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


इसलिये देह-देहादि-देह और देह के सम्बन्धी विषय इन सबसे अयोग हुए बिना भगवान की योग-स्फूर्ति ठीक-ठीक सिद्ध नहीं होती। अर्थात इनसे वियोग हुए बिना भगवान से संयार सिद्ध नहीं होता और होता भी है तो स्थायी नहीं होता। औरों की बात तो छोड़ दे-ध्रुव, प्रह्लाद जिनके समान भगवान के भक्त कौन होंगे? भक्त शिरोमणि और इनकी जीवनी पर विचार करके देखिये। साक्षात भगवान के लीला विग्रह का योग-सौभाग्य इन्हें प्राप्त हुआ किन्तु ये सम्पूर्ण रूप से विषयों से अयोग न होने के कारण फिर से राजकार्य में रत हो गये। ध्रुव तो लड़ाई करने चले गये। प्रह्लाद ने भी लड़ाई की। उसके बाद कई बार; नर-नारायण से लड़ाई हो गयी प्रह्लाद की। बड़ा भयानक युद्ध हुआ। जगत में अयोग न रहने के कारण इन भक्तों की भी जीवनी-यद्यपि उनकी निष्ठा में अन्तर नहीं मानना चाहिये पर उनके जीवन के बाह्य कार्यों में जगत आ ही गया और जो भगवान का सम्पूर्ण भाव से योग था वह देखने में नहीं रहा उस समय।

इसलिये भगवान का योग जैसे भगवान की कृपा से ही साध्य है उसी प्रकार संसार के विषयों में अयोग भी इनकी कृपा से ही साध्य है। कोई कहे कि हम संसार के भोगों को पुरुषार्थ करके छोड़ दें तो इतने से आसक्ति हमारी छूटेगी नहीं। भगवान की कृपा ही इस योग को छुड़ायेगी और भगवान की कृपा ही उस संयोग में लगावेगी। रासलीला में श्रीभगवान का जो योग है-यह ऐसा हुआ कि भगवान के सिवा अन्यान्य समस्त प्राणि पदार्थ परिस्थिति में अयोग सिद्ध करने वाला हो गया। इस प्रकार की योगमाया और अयोगमाया-योग करने वाली कृपा और अयोग कराने वाली कृपा-इन दोनों कृपाओं का प्रकाश करके भगवान ने रमण की इच्छा की।

अतएव इस रासलीला में भगवान ‘योगमायामुपाश्रितः’ भी हैं और अयोगमायामुपाश्रितः भी हैं। भगवान की अयोगमाया का ऐसा प्रभाव है कि एक बार भगवान ने गोपियों के प्रेम की परीक्षा करने के लिये अथवा उनके प्रेम का महत्त्व जगत में प्रकट करने के लिये जब उनसे कहा अपने-अपने घर लौट जाओ। पति-पुत्रादि की सेवा करो तो उनका अयोग कितना हो चुका था कि वो बोलीं-

यत्पत्यपत्यसुहृदामनुवृत्तिरंग, स्त्रीणा स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम्।
अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा।।[1]

गोपियाँ बोलीं-श्यामसुन्दर! आप परम धार्मिक हैं-धर्म के आधार हैं। इसलिये आप हमें उपदेश दे रहे हैं, कह रहे हैं कि तुम पति-पुत्रादि की सेवा में लगो। यह स्त्रियों का परम धर्म है। बहुत ठीक। परन्तु यह उपदेश आपका आप में ही रहे हमारे तो आप ही परमप्रेष्ठ हैं तथा परम बान्धव हैं और सर्वस्व हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।29।32

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