रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 105

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


यह कृपाशक्ति जहाँ प्रकट होती है वहाँ नाना प्रकार से भक्तों की मनोवासना भगवान पूर्ण करते हैं। व्रजरमणियों ने अपने इस पर-प्रेमवश धैर्य, लज्जा, कुलशील, भय, मान लोक-परलोक आदि सबका परित्याग करके निर्बाध श्रीभगवान की सेवा करने के लिये अत्यन्त उत्कंठित होकर अर्थात उत्कंठा की चरम सीमा पर पहुँचकर जब उन्होंने भगवान के समीप जाने की इच्छा की तब भगवान की कृपाशक्ति पूर्णरूप से विकसित होकर भगवान को भी उनके प्रेम सेवा के ग्रहण योग्य सजा दिया और उसी प्रकार से गोपियों के साथ श्रीगोपीनाथ का मिलन संघटित हुआ। इसीलिये यह लीला सर्वलीला मुकुटमणि कहलायी। तो इससे - ‘योगमायामुपाश्रितः’ इस वाक्य से भगवान की निर्वधी कृपा का ही संकेत मिलता है। उस कृपा का ही एक बड़ा सुन्दर रूप और दिखाते हैं।

श्रीभगवान की रासलीला में गोपियों के साथ उनका योग करने के लिये-गोपियों का येाग भगवान के साथ हो जाय इसलिये जिस प्रकार अपार कृपा प्रकट हुई ठीक इसी प्रकार गोपियों का पति, पुत्र, पिता, भ्राता, आत्मीय बान्धव, गृह, परिवार, स्वजन, पदार्थ इत्यादि से अयोग करने के लिये भी यह कृपा प्रकट हुई। भगवान ब्रह्मरूप से सर्वत्र और अन्तर्यामीरूप से समस्त जीवों के हृदयों में अवस्थित हैं। अतएव सबके साथ सदा ही उनका योग है। इसमें कोई संदेह ही नहीं किन्तु स्त्री, पुत्र, स्वामी, परिजन, विषय, वैभव, देह, घर इत्यादि के साथ अयोग न रहने के कारण इस नित्य योग का अनुभव नहीं होता। बात समझ में आयी कि नहीं? अर्थात भगवान सभी के हृदय में नित्य रहते हैं इसलिये भगवान का किसी के साथ कभी वियोग है ही नहीं, योग है ही पर योग दीखता क्यों नहीं? इसलिये नहीं दीखता कि घर में, घर वालों में, परिवार में, संसार में, भोगों में, प्राणि-पदार्थों में योग हो रहा है, वहाँ अयोग नहीं है। वहाँ अयोग हो तो यहाँ योग हो। यहाँ कृपाशक्ति ने दोनों काम किया। गोपियों का पति-पुत्रादि से अयोग किया और भगवान से योग किया-योगमाया और अयोगमाया दोनों प्रकार से।

कहते हैं कि जगत में जो साधक भक्त श्रवण, कीर्तन, ध्यानादि के द्वारा भक्ति के अनुष्ठान से भगवान का निर्बाध ध्यान करके दैहिक, सांसारिक, वैषयिक कर्मों से विरत होते हैं। परन्तु निविष्ट भाव से सर्वदा ध्यान में नहीं लगे रह सकते। क्यों नहीं रह सकते? इसलिये कि वह दो घड़ी के लिये ही भगवान की ओर जाते हैं। पर घर में उनका योग बना रहने के कारण से पुनः विषय सागर में कूद पड़ते हैं। उधर गये और यहाँ का योग छूटा ही नहीं, संसार का योग छूटा नहीं और भगवान में योग करने गये तो घड़ी आध घड़ी भगवान में जाकर के लगने की चेष्टा की, योग किया परन्तु यह अयोग हुआ नहीं था। इसलिये फिर विषय सागर में कूद पड़े। इस अयोग के बिना काम नहीं होता। अगर इन ध्याननिष्ठ, साधननिष्ठ लोगों का स्त्री, पुत्र, वित्तादि में सर्वथा अयोग हो गया होता तो साधनकाल में भगवान का योग नित्य बन जाय। उसमें कोई बाधा आवे ही नहीं। यह घर का, संसार का योग ही बार-बार वहाँ से खींचकर भगवान से वियोग कराता है और इसमें लगाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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