रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 101

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


इस प्रकार यह कार्य जानकर-एक बात और देख लेनी है कि शक्ति और शक्तिमान में तत्त्वतः कोई भेद नहीं है किन्तु शक्तिमान और शक्ति में आधार-आधेय के भाव से मुख्य और गौण भाव हैं अवश्य क्योंकि शक्ति ही शक्तिमान के आश्रय रहती हैं और शक्तिमात्र ही शक्तिमान की सेवा भी करती है। हमारी दर्शनशक्ति-देखने की शक्ति, हमारी श्रवण शक्ति-ये शक्तियाँ जैसे द्रव्य और श्रव्य वस्तुओं को दिखाकर और सुनाकर हमारी सेवा करती हैं, इसी प्रकार भगवान की अनन्त शक्तियाँ उनके अनन्त कार्यों को सम्पन्न करती हुई उनकी सेवा में लगी रहती हैं। जैसे जगत में दर्शनशक्तिहीन-जिसमें देखने की शक्त्ति नहीं, सुनने की शक्ति नहीं, चलने की शक्ति नहीं-गमनशक्तिहीन, वाक्शक्तिहीन-बोलने की शक्ति नहीं, ऐसे व्यक्ति देखे जाते हैं। परन्तु कहीं बताओ कि व्यक्तिहीन दर्शनशक्ति हो। कहीं व्यक्तिहीन श्रवणशक्ति हो। माने व्यक्ति में चाहे श्रवणशक्ति हो या न हो किन्तु व्यक्ति के बिना श्रवणशक्ति कहीं रहती नहीं। इसीलिये शक्ति और शक्तिमान का तत्त्वतः भेद न होने पर भी, दोनों एक होने पर भी शक्तिमान मुख्य है और शक्ति उसकी अपेक्षा गौण है।

भगवान की योगमाया शक्ति जो भगवान को मुग्ध करती है वह भगवान से बड़ी नहीं है। भगवान की ही शक्ति है। जो लोग केवल शक्ति को ही बड़ी कहते हैं वह शक्तिमान को भूलकर शक्ति का प्राण ही निकाल लेते हैं। आधार ही नहीं रहेगा तो वस्तु रहेगी कहाँ? शक्तिमान अगर न रहे तो शक्ति को ढूँढ़ निकालना बहुत मुश्किल होगा। अतएव शक्ति और शक्तिमान तत्त्वतः अभिन्न होने पर भी शक्ति ही शक्तिमान के आश्रित है और यह मानने पर ही अनन्त शक्तिमान भगवान के लीलारस सिन्धु में अवगाहन होना सम्भव है। नहीं तो ऊपर-ऊपर आदमी घूता है और डुबकी नहीं लगाता है।

‘योगमायामुपाश्रितः’ इस श्लोकांश को देखने पर यह मालूम होता है कि भगवान ने योगमाया का आश्रय करके स्वरूपानन्द के साथ रमण करने की इच्छा की। अब योगमाया का आश्रय क्या? जगत में कोई भी असमर्थ व्यक्ति अपने किसी कार्य को सम्पन्न कराने के लिये किसी सक्षम समर्थ व्यक्ति का आश्रय करता है। क्या यहाँ भी वही बात है? भई! हम असमर्थ हैं तो किसी समर्थ का आश्रय ले तो क्या यहाँ पर भगवान ने वैसा आश्रय लिया? योगमाया भगवान की शक्ति-यह भगवान के आश्रित तो उसका भगवान ने आश्रय कैसे लिया? यह प्रश्न मन में आ जाते हैं शब्दों को देख करके। यहाँ योगमाया उपाश्रित है प्रकटीकृत। ‘भगवान रन्तुं मनश्चक्रे’ भगवान ने योगमाया शक्ति को प्रकट करके रमण करने की इच्छा की। यहाँ इस वक्तव्य का यह भाव है। जैसे सूर्य अपनी किरणमाला को प्रकाशित करके पूर्व गगन में उदय होते हैं और जिस ओर सूर्य की गति होती है उसी ओर किरणमालाओं का प्रकाश जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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