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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
भगवान की योगमाया शक्ति जो भगवान को मुग्ध करती है वह भगवान से बड़ी नहीं है। भगवान की ही शक्ति है। जो लोग केवल शक्ति को ही बड़ी कहते हैं वह शक्तिमान को भूलकर शक्ति का प्राण ही निकाल लेते हैं। आधार ही नहीं रहेगा तो वस्तु रहेगी कहाँ? शक्तिमान अगर न रहे तो शक्ति को ढूँढ़ निकालना बहुत मुश्किल होगा। अतएव शक्ति और शक्तिमान तत्त्वतः अभिन्न होने पर भी शक्ति ही शक्तिमान के आश्रित है और यह मानने पर ही अनन्त शक्तिमान भगवान के लीलारस सिन्धु में अवगाहन होना सम्भव है। नहीं तो ऊपर-ऊपर आदमी घूता है और डुबकी नहीं लगाता है। ‘योगमायामुपाश्रितः’ इस श्लोकांश को देखने पर यह मालूम होता है कि भगवान ने योगमाया का आश्रय करके स्वरूपानन्द के साथ रमण करने की इच्छा की। अब योगमाया का आश्रय क्या? जगत में कोई भी असमर्थ व्यक्ति अपने किसी कार्य को सम्पन्न कराने के लिये किसी सक्षम समर्थ व्यक्ति का आश्रय करता है। क्या यहाँ भी वही बात है? भई! हम असमर्थ हैं तो किसी समर्थ का आश्रय ले तो क्या यहाँ पर भगवान ने वैसा आश्रय लिया? योगमाया भगवान की शक्ति-यह भगवान के आश्रित तो उसका भगवान ने आश्रय कैसे लिया? यह प्रश्न मन में आ जाते हैं शब्दों को देख करके। यहाँ योगमाया उपाश्रित है प्रकटीकृत। ‘भगवान रन्तुं मनश्चक्रे’ भगवान ने योगमाया शक्ति को प्रकट करके रमण करने की इच्छा की। यहाँ इस वक्तव्य का यह भाव है। जैसे सूर्य अपनी किरणमाला को प्रकाशित करके पूर्व गगन में उदय होते हैं और जिस ओर सूर्य की गति होती है उसी ओर किरणमालाओं का प्रकाश जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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