विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीयोगमायामुपाश्रित:-भगवान की प्रेम-परवशतायह ईश्वर से भी यही अपेक्षा रखता है कि जो हम कहें वही ईश्वर करे। हम कहें कि वर्षा कर तब ईश्वर वर्षा करे और हम कहें कि गरमी डाल तो गरमी डाले। हम अपनी हुकूमत ईश्वर पर भी डालना चाहते हैं। यह बात हमारे स्वभाव में हमारी छठी में डाली हुई है। चेले लोग गुरु को अपनी इच्छा के अनुसार चलाना चाहते हैं; पत्नी पति को अपनी इच्छा के अनुसार चलाना चाहती है। नौकर भी मालिक से यही अपेक्षा रखता है कि हमारे कहे अनुसार ये काम करें। यह दुनिया सहज स्वभाव है। अब यह सवाल हुआ कि हम ईश्वर काबू कैसे पायेंगे? एक बात यह हुई कि यदि हम पुण्य आचरण करें, धर्माचरम करें कि चूँकि ईश्वर हमारे धर्म का, हमारे कर्म का फल देता है। अतः हम जो-जो चाहेंगे, सो-सो ईश्वर देगा। हम कहें हे ईश्वर, एक बेटा हमारे पास पार्सल करके भेज दे, हमारे पास नोट का बण्डल भेज दे, एक बड़ी सुघर पत्नी भेज दे। तो इसके लिए हमें धर्माचरण करना होगा। जब हम धर्माचरण करेंगे तो ईश्वर हमारे ऊपर प्रसन्न होगा और प्रसन्न होंगे तो जो चाहेंगे सो ईश्वर देगा। इस प्रकार ईश्वर से मनमानी चीज लेने का उपाय हुआ धर्म का अनुष्ठान। अच्छा, यह कैसे होता है, यह भी आपको सुना दूँ। यह ऐसे होता है कि हमारे जीवन में पाप वासना की अधिकता होती है और पुण्य और धर्म वासना को घटाने से होता है। तो जितनी-जितनी वासना हम कम करते हैं और शास्त्र-विधि के अनुसार आचरण करते हैं माने हम अपने को नियंत्रित करते हैं, उतना-उतना ही ईश्वर हमारे धर्मानुष्ठान के द्वारा नियंत्रित होकर ईश्वर भी नियंत्रित हो जाता है। कर्म एव गुरुरीश्वर:- हमको सुख- दु:ख देने में ईश्वर कर्माधीन है जब हम अपने को विधि के अधीन करते हैं तो ईश्वर भी विधि के अनुरूप फल देने के लिए अपने को कर लेता है। जब हम विधिपूर्वक जप करते हैं, पुत्रेष्टि यज्ञ करते हैं, तब ईश्वर विधिपूर्वक पुत्र देता है। जब हम पशु-याग करते हैं तब ईश्वर स्वर्ग देता है। एक बात समझदार लोग ध्यान में रखेंगे। जब हम वेदशास्त्र के द्वारा नियंत्रित होकर धर्माचरण करते हैं तब हृदय में बैठे हुए अन्यर्यामी नियन्ता ईश्वर से हमारा तादात्म्य हो जाता है और फिर हमारी इच्छा कि हमको यह मिले, वह ईश्वर की इच्छा हो जाती है और वह चीज मिल जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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