विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरासलीला का अन्तरंग-4हमारे गाँव के पास एक महात्मा थे, उनका नाम था, सिकड़िया बाबा था। यह जो इतना संघर्ष, इतना द्वंद्व जीवन में आता है, क्यों? कहा- वह जो दोषदृष्टिमूलक वैराग्य है उसको जो अपने जीवन में लाते हैं कि यह बुरा है- यह बुरा है- उधर तो मन कहता है चलो, और इधर कहते हैं बुरा-बुरा, तो हो जाता है द्वंद्व और आ जाता है पागलपन! और जो लोग महाराज, राधाकृष्ण की इस रसमयी, रसीली रासलीला का प्रसंग अपने मन में सोचते हैं, उनके मन में इसका भाव करने से, इसका ध्यान करने से, स्वाभाविक ही मन के साथ बलात्कार करके नहीं, मन स्वयं स्वरस से, निसर्ग से अंतर्मुख हो जाता है। जैसे- अचिन्त्य होने पर भी चिन्मात्र का चिन्तन किया ही जाता है; जैसे निर्विशेष सतता बुद्धि का विषय न होने पर भी उसका बुद्धि के द्वारा चिन्तन करते हैं, इसी प्रकार यह जो आनन्द है, रस से परिपूर्ण आनन्द है, आनन्द ब्रह्म है, इसका जब चिन्तन करते हैं, तो हमारे मनकी स्वाभाविक वृत्ति भगवान की ओर प्रवाहित होने लगती है-
भगवान के गुणों के श्रवणमात्र से हमारी मनोवृत्ति भगवान की ओर प्रवाहित होने लगती है और मन की स्वारसिकी वृत्ति जब भगवान की ओर प्रवाहित होती है तो संसार से बिना किसी संघर्ष के, बिना वैमनस्य के, बिना किसी प्रकार के द्वंद्व के, बिना दुनिया में लड़ाई लड़े, हमारा मन भगवान के पक्ष में हो जाता है और संसार का पक्षपात छोड़ देता है। इसीलिए रासलीला के अंत में यह बात कही गयी कि-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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