विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरासलीला का अन्तरंग-3अब दुनिया में तो लोगों के- स्त्री के, पुरुष के- काम तो जगा ही रहता है! ऐसा कौन पशु, पक्षी, प्राणी, मनुष्य है जिसके हृदय में काम न हो? जो लोग कहते हैं कि मैं पूर्ण निष्काम हूँ, मैं उनकी निन्दा नहीं करता हूँ, लेकिन उनके बारे मे दो बातें कहता हूँ- या तो लोग समझते नहीं कि काम का स्वरूप क्या है अर्थात् उनमें काम रहता तो है पर पहचानते नहीं है। और या वे जान-बूझकर ऐसा बोलते हैं कि हमें कोई इच्छा नहीं है अथवा कि मैं निष्काम हूँ। अथवा यह भी हो सकता है कि इच्छा तो है उनके अंतःकरण में, पर अपने को ब्रह्म मानकर बोलते हैं कि मैं निष्काम हूँ, क्योंकि जब तक अंतःकरण है तब तक अंतःकरण तो काम तो उपादान से बना हुआ है ही, उसका मसाला ही काम है। तो उसमें या तो न पहचानने के कारण निष्कामता होती है या तो पहचान करके दम्भ किया जाता है या तो उनका काम ब्रह्मज्ञान से दग्द हो गया है। दग्ध अंतःकरण को निष्काम बोलते हैं- दग्ध माने भस्मीभूत। शंकरजी ने जैसे काम को जला तो दिया था, परंतु जलने पर भी उसका शरीर ही जला, उसकी आत्मा नहीं जली, यह तो आप जानते ही हैं। तो ये भगवान श्रीकृष्ण गोपियों के हृदय में जो काम उद्दीप्त कर रहे, इसका क्या अभिप्राय है- यह हम अब इस प्रसंग में लेते हैं। प्रेमनगरी के उल्टे चौंसठ कानूनों में से एक कानून है कि- प्रेम की नगरी में निष्काम रहना ही कामी रहना है, निन्दित होना है; और सकाम होना निष्काम होने से सौ-गुना श्रेष्ठ होना है। यह वृन्दावन का कानून है, वृन्दावनधाम, भगवत्धाम का कानून है। भला कोई वृन्दावन में रहे और वह श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए व्याकुल न हो, श्रीकृष्ण की वंशी सुनने के लिए व्याकुल न हो, श्रीकृष्ण के स्पर्श के लिए उसके मन में व्याकुलता न हो, तो वह वृन्दावन का वासी अभागा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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