विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों में दास्य का हेतु-1यह नहीं, हमको दासी बनाओ यह बात भी नहीं, वे कहती हैं कि अब दासी बनाना तुम्हारे हाथ में नहीं है , वह तो हमारे हाथ में आ गया। पहले चाल तुम्हारे हाथ में थी कि तुम स्वीकार करो या न करो; लेकिन बाबा, अब तुम चाहे स्वीकार करो, मत करो- हम तुमसे त्रिवाचा भरवाने नहीं आयी हैं कि तुम हमसे यह कहो कि ‘तुम हमारी दासी हो, दासी हो, दासी हो, और हम तुमको अब कभी नहीं छोड़ेंगे, नहीं छोड़ेंग, नहीं छोड़ेंगे; हम तुमसे यह नहीं कहेंगी कि इसके लिए तुम अग्नि की सौगन्ध करो या गणेश जी को मनाओ और उनके सामने वायदा करो कि हम अब तुमको कभी नहीं छोड़ेंगे- हम तो अपनी ओर से यह बोलती हैं कि ‘भवाम दास्यः’ हम तो तुम्हारी दासी हैं ही चाहे तुम हमको स्वीकार करो या हमको तुम इसी क्षण में छोड़ दो। हम सापेक्षा प्रेम करने वाली नहीं है। यह बात आगे चलकर बहुत अच्छा रासपञ्चाध्यायी में है। वहाँ आया है कि जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं वे तो ऐसे हैं जैसे पशु-पक्षी आपस में प्रेम करते हैं। और जो-’
प्रेम न करने वाले से प्रेम करना, यह तो वात्सल्य में होता है जैसे माता-पिता प्रेम करते हैं, जैसे सन्त प्रेम करते हैं, जैसे चातक प्रेम करता है, जैसे कुमुदिनी प्रेम करती है- यह एकांकी प्रेम है। यह ऊँची बात है। और दोनों ओर से प्रेम करना यह मामूली बात है, इसमें दोनों का स्वार्थ है। गोपियों का प्रेम कोई संसारियों का, कोई भोगियों का, (कोई रोगियों का, काम-रोगियों का प्रेम) नहीं है; गोपियों का प्रेम तो गोपियों का प्रेम है; उसमें और क्या बात है, यह प्रसंग फिर सुनावेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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