विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीश्रीकृष्ण में रति ही बुद्धिमानी हैआप देखो, एक आदमी सन्ध्यावन्दन रोज करता है। एक दिन जुआ खेलने लग गया, तो सन्ध्यावन्दन छूट गया और एक दिन समाधि लग गयी तो सन्ध्या-वन्दन छूट गया। सन्ध्या-वन्दन तो दोनों दशा में छूटा, पर दोनों में फर्क क्या हुआ? जिस दिन जुआ के कारण संध्यावन्दन छूटा उस दिन तो उसका पतन हुआ और जिस दिन समाधि लगने से सन्ध्यावन्दन छूटा उस दिन वह छूटना उसकी उन्नति का हेतु हुआ। इसी प्रकार गृहस्थधर्म वैसे तो पाप से बचाता है, नरक से बचाता है, मन और इंद्रियों को संयम सिखाता है, वासना को मिटाने से मुक्त करता है। परंतु यदि भगवान् की भक्ति के कारण गृहस्थधर्म छूटता है तो वह उसकी उन्नति का हेतु है।
मनुष्य के ऊपर देवता का, ऋषि का भूत-प्राणियों का, सबका ऋण रहता है। सूर्य की किरणों की रोशनी में आप देखते हैं कि परंतु बदले में सूर्य को क्या देते हैं? यह रोज ऋण चढ़ता है। पृथ्वी पर पाँव रखते हैं, शौच-लघुशंका को जाते हैं, सोते हैं लेकिन पृथ्वी को कुछ नहीं देते तो उसका भी ऋण है। यह देवऋण है। ऋषियों के बनाये हुए ज्ञान से लाभ उठाते हैं और उनको देते कुछ नहीं हैं तो यह ऋषि-ऋण हुआ। दौड़कर चलते हैं या खेत को जोतते-बोते हैं तो रोज हजारों कीड़े मारते हैं उनका ऋण चढ़ता है। यह भूतऋण है। अपने बड़े-बूढ़े, माता-पिता का ऋण है कि माता ने हमको पेट में धारण किया, अपनी छाती का दूध पिलाया, अंगुली पकड़कर चलना सिखाया। यदि बच्चा समझे कि माँ-बाप का हमारे ऊपर कोई ऋण नहीं है तो वह बेवकूफ है ना। यह पितृ-ऋण है। अपने गुरुजनों का कर्ज हुआ कि जिसने पढ़ाया। तो इन सब ऋणों को चुकाना एक समझदार मनुष्य का कर्त्तव्य है। भले उनका बिल न आवे, लेकिन जो समझता है कि हमारे ऊपर कर्ज है उसको तो चुकाना चाहिए। तो इन्हीं को चुकाने के लिए गृहस्थधर्म है लेकिन अगर यह मनुष्य सर्वात्मना भगवान् की शरण में चला जाये, तो फिर वह न किसी का कर्जदार है और न किसी का गुलाम है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.5.41
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