रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 275

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रासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

गोपियों का समर्पण-पक्ष

सुनो, कृष्ण जब वृन्दावन में निकलते हैं, तो मोर नाचने लगते हैं, कोयल कूकने लगती हैं, हरिण-हरिणियाँ अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से देखने लगती हैं, बछड़े और गाय प्रेम से चरना बंद कर देते हैं, वृक्षों से मधुक्षरण हो जाता है, नदियों का बहना बंद हो जाता है और वृक्ष फूल और फलसहित झुक जाते हैं।
गोपियों की बात क्या कहें-
प्रेष्ठो भ्रवांस्तनुभृतां- ‘ये प्रिय सबहिं जहाँ लगि प्राणी।’ ईश्वर की यह पहचान है कि संसार में जहाँ तक प्राणी हैं सबको वे प्यारे होते हैं। श्रीमद्भागवत में यह प्रश्न उठा कि व्रजवासी लोग अपने बच्चों से इतना प्रेम नहीं करते, और नन्दबाबा के बच्चे से इतना प्रेम करते हैं, क्यों? राजा परीक्षित ने यह प्रश्न किया और इसका उत्तर शुकदेव जी महाराज ने दिया कि अरे भाई, जितनी वस्तुएँ हैं सब अपने-आपसे प्रेम करती हैं।

सबके शरीरों में जो अलग-अलग अहं-अहं-अहं फुर रहा है वह तो सबके शरीरों में अलग-अलग है परंतु सबके अहं में जो एक अहं है वही श्रीकृष्ण-प्यारे का अहं है इसलिए वह सभी को प्यारा है। वह प्यारे का भी प्यारा प्रेष्ठ है, परम प्रियतम है। गोपियाँ बोलीं कि तुम आत्मा हो, तुम ब्रह्म हो, तुम ईश्वर हो, तुम परम प्रियतम हो, तुम हमारे भोग्य हो और तुम्हीं सबकी भोगती आत्मा हो, तुम्हीं सबके नियन्ता ईश्वर हो। तुम्हीं सबके परम प्रेमास्पद, हो, प्रेमानन्दस्वरूप हो, और तुम्हीं सबके परम हितैषी और दयालु हो। सब धर्मों का फल है तुमसे प्रेम होना और तुम कहते हो कि जाओ तुम धर्म, कर्म में? हमारा देवता इन्द्र नहीं, तुम हो, हम अधिकारी धर्म की नहीं प्रेम की हैं, हमारा संकल्प तुम्हारे साथ विहार है, हमारा प्रयोजन तुमको सुख पहुँचाना है। अरे, कुछ तो विचार करो। अर्थी होय, समर्थी होय, जानकार होय, अधिकारी होय, तब धर्म का उपदेश करना ठीक है।

धर्म नीति उपदेसिय ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही ।।
मैं शिशु प्रभु सनेह प्रतिपाला। मन्दरु मेरु कि लेंहि मराला ।।
मोरे सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबन्धु उर अंतरजामी ।।

लक्ष्मणजी ने कहा- हे रामचंद्र, मैं गुरु, पिता, माता किसी को नहीं जानता। मेरे तो माता, पिता, स्वामी, सब तुम्हीं हो। धर्म का, नीति का उपदेश उसके लिए करो, जिसकी कीर्ति, भूति, सुगति प्यारी हो। मैं तो आपके स्नेह में पला हूँ। भला कहीं हंस अपनी पीठ पर मंदराचल पर्वत को उठाता है? धर्म का यह बोझ हमारे सिर पर नहीं उठाया जा सकता। हमारा हृदय तो प्रेमी का कोमल हृदय है। प्रेम कोमल है। यह स्वर्गप्रापक यज्ञयागादियुक्त धर्मानुष्ठान का बोझ सहन करने योग्य नहीं है। इसमें तो बस केवल प्रीति रहती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती
प्रवचन संख्या विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. उपक्रम 1
2. रास की भूमिका एवं रास का संकल्प 12
3. रास के हेतु, स्वरूप और काल 28
4. रास के संकल्प में गोपी-प्रेम की हेतुता 40
5. रास की दिव्यता का ध्यान 51
6. योगमाया का आश्रय लेने का अर्थ 63
7. योगमायामुपाश्रित:-भगवान की प्रेम-परवशता 75
8. कृपायोग का आश्रय और चंद्रोदय 85
9. रास-रात्रि में पूर्ण चंद्र का दर्शन 96
10. रास में चंद्रमा का योगदान 106
11. भगवान ने वंशी बजायी 116
12. गोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनी 127
13. श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अभिसार 141
14. जो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1 152
15. जो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2 163
16. जो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3 175
17. जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 187
18. विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 198
19. गोपी दौड़कर गयीं कृष्ण के पास और कृष्ण ने कहा कि लौट-जाओ 209
20. श्रीकृष्ण का अमिय-गरल-वर्षण 214
21. गोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभन 225
22. ‘लौट-जाओ’ सुनकर गोपियों की दशा का वर्णन 238
23-24. प्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलीं 248
(प्रणय-गीत प्रारम्भ)
25. गोपियों का समर्पण-पक्ष 261
26. श्रीकृष्ण में रति ही बुद्धिमानी है 276
27. गोपियों की न लौट पा सकने की बेबसी और मर जाने के परिणाम का उद्घाटन 286
28. गोपियों का श्रीकृष्ण को पूर्व रमण की याद दिलाना 297
29-31. गोपियों में दास्य का उदय 307
32. गोपियों में दास्य का हेतु-1 338
33. गोपियों में दास्य का हेतु-2 353
34. गोपियों में दास्य का हेतु-3 366
35-36. गोपियों की चाहत 376
(प्रणय-गीत समाप्त)
37-39. प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम 393
40. रास में श्रीकृष्ण की शोभा 429
41. रास-स्थली की शोभा 441
42. रासलीला का अन्तरंग-1 453
43. रासलीला का अन्तरंग-2 467
44. रासलीला का अन्तरंग-3 480
45. रासलीला का अन्तरंग-4 494
46. अंतिम पृष्ठ 500

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