विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों का समर्पण-पक्षसुनो, कृष्ण जब वृन्दावन में निकलते हैं, तो मोर नाचने लगते हैं, कोयल कूकने लगती हैं, हरिण-हरिणियाँ अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से देखने लगती हैं, बछड़े और गाय प्रेम से चरना बंद कर देते हैं, वृक्षों से मधुक्षरण हो जाता है, नदियों का बहना बंद हो जाता है और वृक्ष फूल और फलसहित झुक जाते हैं। सबके शरीरों में जो अलग-अलग अहं-अहं-अहं फुर रहा है वह तो सबके शरीरों में अलग-अलग है परंतु सबके अहं में जो एक अहं है वही श्रीकृष्ण-प्यारे का अहं है इसलिए वह सभी को प्यारा है। वह प्यारे का भी प्यारा प्रेष्ठ है, परम प्रियतम है। गोपियाँ बोलीं कि तुम आत्मा हो, तुम ब्रह्म हो, तुम ईश्वर हो, तुम परम प्रियतम हो, तुम हमारे भोग्य हो और तुम्हीं सबकी भोगती आत्मा हो, तुम्हीं सबके नियन्ता ईश्वर हो। तुम्हीं सबके परम प्रेमास्पद, हो, प्रेमानन्दस्वरूप हो, और तुम्हीं सबके परम हितैषी और दयालु हो। सब धर्मों का फल है तुमसे प्रेम होना और तुम कहते हो कि जाओ तुम धर्म, कर्म में? हमारा देवता इन्द्र नहीं, तुम हो, हम अधिकारी धर्म की नहीं प्रेम की हैं, हमारा संकल्प तुम्हारे साथ विहार है, हमारा प्रयोजन तुमको सुख पहुँचाना है। अरे, कुछ तो विचार करो। अर्थी होय, समर्थी होय, जानकार होय, अधिकारी होय, तब धर्म का उपदेश करना ठीक है।
लक्ष्मणजी ने कहा- हे रामचंद्र, मैं गुरु, पिता, माता किसी को नहीं जानता। मेरे तो माता, पिता, स्वामी, सब तुम्हीं हो। धर्म का, नीति का उपदेश उसके लिए करो, जिसकी कीर्ति, भूति, सुगति प्यारी हो। मैं तो आपके स्नेह में पला हूँ। भला कहीं हंस अपनी पीठ पर मंदराचल पर्वत को उठाता है? धर्म का यह बोझ हमारे सिर पर नहीं उठाया जा सकता। हमारा हृदय तो प्रेमी का कोमल हृदय है। प्रेम कोमल है। यह स्वर्गप्रापक यज्ञयागादियुक्त धर्मानुष्ठान का बोझ सहन करने योग्य नहीं है। इसमें तो बस केवल प्रीति रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
प्रवचन संख्या | विषय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज