विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों का समर्पण-पक्षउभयपदी होने से भक्ति का फल भजनीय की ओर, ईश्वर की ओर जाता है। जैसे देखो, आदमी अस्पताल में रोगी को पंखा झल रहा है। सौ रूपया महीना उसको तनख्वाह मिलती है। तो जो पंखा झलने का फल है (रुपया) वह पंखा झलने वाले को, सेवक को मिलता है। तो सेवा आत्मनेपदी हुई। अच्छा, अब एक दूसरा आदमी है, वह गुरुजी को पंखा जल रहा है। तो आपने देखा होगा कि पंखा ऐसे झलते हैं लोग कि थोड़ी हवा अपने को ही लगे और थोड़ी हवा जिसको झलें उसको लगे। तो अब यह सेवा उभयपदी हो गयी, क्योंकि उसमें तनख्वाह तो मिलनी नहीं है, अपने को भी हवा लगे, और उनको भी लगे। और यदि कोई पंखा ऐसे झलते हैं कि स्वयं चाहे पसीने से तर-बतर रहें, लेकिन दूसरे कि लिए ही पंखा झलते हैं तो यह प्रेम हुआ, भक्ति हुई। यह सेवा परस्मैपदी हो गयी। नारायण। यह भाषा का विज्ञान है भाषा में यह बात भरी हुई है। यहाँ तो गुरु और ईश्वर दोनों एक हो गये, इसलिए यहाँ सेवा नहीं है, भजन है। और यह आत्मनेपदी भजन नहीं है, परस्मैपदी भजन है। अपने प्यारे को सुख मिले : यह भजन हुआ। तो बोले- अब हमारा धर्म तो पूर्ण हो गया, चरितार्थ हो गया, धर्म का फल मिल गया। ‘अस्त्वेवमेतदुपदशपदे त्वयीशे’ श्रीधरस्वामी कहते हैं कि असल में पति की सेवा नहीं होती, उसके आत्मा की सेवा होती है। पुत्र के शरीर की सेवा नहीं होती, पुत्र की आत्मा की सेवा होती है। सुहृद् के शरीर की सेवा नहीं होती, उसके आत्मा की सेवा होती है। नारायण, देखो, शरीर की सेवा कौन करे, अगर आत्मा न हो तो? शरीर की सेवा कोई करेगा? बिना आत्मा के इसमें दुर्गन्ध आने लगती है, तभी तो इसको घर से बाहर निकाल देते हैं। असल में सेवा आत्मा की होती है। तो सेवा करने वाले को यह ख्याल रखना चाहिए। तो क्या कहती हैं गोपियाँ? हम तो न पति को जानें, न पुत्र को जानें; न सुहृद् को जानें। उपदेशपदे- यह जो उपदेश तुम कर रहे हो, पति, पुत्र, सुहृद् की भक्ति का, तो पति में भी अधिष्ठान और द्रष्टा-साक्षीरूप से तुम्हीं हो कृष्ण, और पुत्र में भी तुम्हीं हो, और सुहृद् में भी तुम्हीं हो। सेवा करने वाले को तो ध्यान रखना चाहिए कि हम किसकी सेवा करते हैं। तो ये अलग-अलग हैं और तुम एक हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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