रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 273

Prev.png

रासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

गोपियों का समर्पण-पक्ष

उभयपदी होने से भक्ति का फल भजनीय की ओर, ईश्वर की ओर जाता है। जैसे देखो, आदमी अस्पताल में रोगी को पंखा झल रहा है। सौ रूपया महीना उसको तनख्वाह मिलती है। तो जो पंखा झलने का फल है (रुपया) वह पंखा झलने वाले को, सेवक को मिलता है। तो सेवा आत्मनेपदी हुई। अच्छा, अब एक दूसरा आदमी है, वह गुरुजी को पंखा जल रहा है। तो आपने देखा होगा कि पंखा ऐसे झलते हैं लोग कि थोड़ी हवा अपने को ही लगे और थोड़ी हवा जिसको झलें उसको लगे। तो अब यह सेवा उभयपदी हो गयी, क्योंकि उसमें तनख्वाह तो मिलनी नहीं है, अपने को भी हवा लगे, और उनको भी लगे। और यदि कोई पंखा ऐसे झलते हैं कि स्वयं चाहे पसीने से तर-बतर रहें, लेकिन दूसरे कि लिए ही पंखा झलते हैं तो यह प्रेम हुआ, भक्ति हुई। यह सेवा परस्मैपदी हो गयी।

नारायण। यह भाषा का विज्ञान है भाषा में यह बात भरी हुई है। यहाँ तो गुरु और ईश्वर दोनों एक हो गये, इसलिए यहाँ सेवा नहीं है, भजन है। और यह आत्मनेपदी भजन नहीं है, परस्मैपदी भजन है। अपने प्यारे को सुख मिले : यह भजन हुआ। तो बोले- अब हमारा धर्म तो पूर्ण हो गया, चरितार्थ हो गया, धर्म का फल मिल गया। ‘अस्त्वेवमेतदुपदशपदे त्वयीशे’ श्रीधरस्वामी कहते हैं कि असल में पति की सेवा नहीं होती, उसके आत्मा की सेवा होती है। पुत्र के शरीर की सेवा नहीं होती, पुत्र की आत्मा की सेवा होती है। सुहृद् के शरीर की सेवा नहीं होती, उसके आत्मा की सेवा होती है। नारायण, देखो, शरीर की सेवा कौन करे, अगर आत्मा न हो तो?

शरीर की सेवा कोई करेगा? बिना आत्मा के इसमें दुर्गन्ध आने लगती है, तभी तो इसको घर से बाहर निकाल देते हैं। असल में सेवा आत्मा की होती है। तो सेवा करने वाले को यह ख्याल रखना चाहिए। तो क्या कहती हैं गोपियाँ? हम तो न पति को जानें, न पुत्र को जानें; न सुहृद् को जानें। उपदेशपदे- यह जो उपदेश तुम कर रहे हो, पति, पुत्र, सुहृद् की भक्ति का, तो पति में भी अधिष्ठान और द्रष्टा-साक्षीरूप से तुम्हीं हो कृष्ण, और पुत्र में भी तुम्हीं हो, और सुहृद् में भी तुम्हीं हो। सेवा करने वाले को तो ध्यान रखना चाहिए कि हम किसकी सेवा करते हैं। तो ये अलग-अलग हैं और तुम एक हो।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती
प्रवचन संख्या विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. उपक्रम 1
2. रास की भूमिका एवं रास का संकल्प 12
3. रास के हेतु, स्वरूप और काल 28
4. रास के संकल्प में गोपी-प्रेम की हेतुता 40
5. रास की दिव्यता का ध्यान 51
6. योगमाया का आश्रय लेने का अर्थ 63
7. योगमायामुपाश्रित:-भगवान की प्रेम-परवशता 75
8. कृपायोग का आश्रय और चंद्रोदय 85
9. रास-रात्रि में पूर्ण चंद्र का दर्शन 96
10. रास में चंद्रमा का योगदान 106
11. भगवान ने वंशी बजायी 116
12. गोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनी 127
13. श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अभिसार 141
14. जो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1 152
15. जो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2 163
16. जो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3 175
17. जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 187
18. विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 198
19. गोपी दौड़कर गयीं कृष्ण के पास और कृष्ण ने कहा कि लौट-जाओ 209
20. श्रीकृष्ण का अमिय-गरल-वर्षण 214
21. गोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभन 225
22. ‘लौट-जाओ’ सुनकर गोपियों की दशा का वर्णन 238
23-24. प्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलीं 248
(प्रणय-गीत प्रारम्भ)
25. गोपियों का समर्पण-पक्ष 261
26. श्रीकृष्ण में रति ही बुद्धिमानी है 276
27. गोपियों की न लौट पा सकने की बेबसी और मर जाने के परिणाम का उद्घाटन 286
28. गोपियों का श्रीकृष्ण को पूर्व रमण की याद दिलाना 297
29-31. गोपियों में दास्य का उदय 307
32. गोपियों में दास्य का हेतु-1 338
33. गोपियों में दास्य का हेतु-2 353
34. गोपियों में दास्य का हेतु-3 366
35-36. गोपियों की चाहत 376
(प्रणय-गीत समाप्त)
37-39. प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम 393
40. रास में श्रीकृष्ण की शोभा 429
41. रास-स्थली की शोभा 441
42. रासलीला का अन्तरंग-1 453
43. रासलीला का अन्तरंग-2 467
44. रासलीला का अन्तरंग-3 480
45. रासलीला का अन्तरंग-4 494
46. अंतिम पृष्ठ 500

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः