विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीभगवानपि०-रास की भूमिका एवं रास का संकल्पये श्रीकृष्ण असली ब्रह्म हैं। यह जानता है कि हम गोपियों के अधीन हो जाएं, परवश हो जायें तो क्या परवश होने से हमारे ब्रह्मत्व की हानि हो जाएगी? कहा- नहीं यह तो पूर्ण स्वतंत्र है। कोई क्षति होने वाली नहीं है। ‘भगवानपि रन्तुं मनश्च के’। अब ‘अपि’ शब्द का सुन्दर भाव श्रीधर स्वामी ने बताया। क्या? कि गोपियाँ चाहती थीं कि श्रीकृष्ण हमारे साथ क्रीड़ा करें- यह तो चीरहरण के प्रसंग में ही जाहिर हो गया था। नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः । गोपियों के मन में तो था ही लेकिन अब श्रीकृष्ण के मन में आया- ‘भगवान अपि रन्तुं मनश्चक्रे’ में ‘आपि’ का यही भाव है। और श्रीधर स्वामी का एक भाव और काम क मन में भी था कि ये संन्यासी लोग जो हैं उन्होंने काम का बहुत तिरस्कार किया है। तो तिरस्कृत होकर वह यह सोचने लगा कि भगवान हमको स्वीकार करें तो इनके तिरस्कार का जो हमारा दुःख है वह मिट जायेगा। कामस्तु मनश्चक्रे एव भगवानपि मनश्चक्रे। काम तो चाहता ही था। इसी को श्रीधर स्वामी ने दूसरे ढंग से कहा कामदेव ने ब्रह्मा को जीत लिया। ब्रह्मदिजयसंरूढदर्पकंदर्पदर्पहा । काम ने ब्रह्मा को जीत लिया सरस्वती के प्रसंग और रुद्र को जीत लिया, मोहनी के प्रसंग में। वृन्दा आदि के कई प्रसंग पुराणों में ऐसे आते हैं कि काम ने विष्णु को भी जीत लिया। शिवपुराण पढ़े तो मालूम पड़ता है। वृन्दा के प्रति अतिशय आसक्ति विष्णु की हो गयी; वह जब जल गयी तो विष्णु उसके चिता की भस्म शरीर में लगाकर बैठे और फिर क्या-क्या उपाय किया गया कि फिर पौधे के रूप में प्रकट हुईं। तो यह जो काम है वह बड़ा प्रबल अपने को माने। इसने छाती ठोंकी। खम ठोंक दिया। ब्रह्मा को जीता, रुद्र को जीता, विष्णु को जीता। अब कृष्ण को जीत लें तो हम सचमुच अजेय हो जाएँ। क्या? बोले- कृष्ण ने ब्रह्मा का मद दूर किया, इन्द्र के मान का मर्दन किया, वरुण से पूजा करवा ली, यह तो कोई बड़ा मालूम पड़ता है। तो काम ने कहा कि हमसे दो – दो हाथ हो जाय ! तो चाहता ही था कि हमसे दो–दो हाथ हो जाए ! ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’- अब श्रीकृष्ण के मन में भी दो-दो हाथ करने की इच्छा हो गयी कि यह अच्छी क्रीड़ा होगी। ‘अपि’ से यही संकेत है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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