रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 27

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रासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

भगवानपि०-रास की भूमिका एवं रास का संकल्प

ये श्रीकृष्ण असली ब्रह्म हैं। यह जानता है कि हम गोपियों के अधीन हो जाएं, परवश हो जायें तो क्या परवश होने से हमारे ब्रह्मत्व की हानि हो जाएगी? कहा- नहीं यह तो पूर्ण स्वतंत्र है। कोई क्षति होने वाली नहीं है।

‘भगवानपि रन्तुं मनश्च के’। अब ‘अपि’ शब्द का सुन्दर भाव श्रीधर स्वामी ने बताया। क्या? कि गोपियाँ चाहती थीं कि श्रीकृष्ण हमारे साथ क्रीड़ा करें- यह तो चीरहरण के प्रसंग में ही जाहिर हो गया था।

नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः ।

गोपियों के मन में तो था ही लेकिन अब श्रीकृष्ण के मन में आया- ‘भगवान अपि रन्तुं मनश्चक्रे’ में ‘आपि’ का यही भाव है। और श्रीधर स्वामी का एक भाव और काम क मन में भी था कि ये संन्यासी लोग जो हैं उन्होंने काम का बहुत तिरस्कार किया है। तो तिरस्कृत होकर वह यह सोचने लगा कि भगवान हमको स्वीकार करें तो इनके तिरस्कार का जो हमारा दुःख है वह मिट जायेगा।

कामस्तु मनश्चक्रे एव भगवानपि मनश्चक्रे।

काम तो चाहता ही था। इसी को श्रीधर स्वामी ने दूसरे ढंग से कहा कामदेव ने ब्रह्मा को जीत लिया।

ब्रह्मदिजयसंरूढदर्पकंदर्पदर्पहा ।

काम ने ब्रह्मा को जीत लिया सरस्वती के प्रसंग और रुद्र को जीत लिया, मोहनी के प्रसंग में। वृन्दा आदि के कई प्रसंग पुराणों में ऐसे आते हैं कि काम ने विष्णु को भी जीत लिया। शिवपुराण पढ़े तो मालूम पड़ता है। वृन्दा के प्रति अतिशय आसक्ति विष्णु की हो गयी; वह जब जल गयी तो विष्णु उसके चिता की भस्म शरीर में लगाकर बैठे और फिर क्या-क्या उपाय किया गया कि फिर पौधे के रूप में प्रकट हुईं। तो यह जो काम है वह बड़ा प्रबल अपने को माने। इसने छाती ठोंकी। खम ठोंक दिया। ब्रह्मा को जीता, रुद्र को जीता, विष्णु को जीता। अब कृष्ण को जीत लें तो हम सचमुच अजेय हो जाएँ। क्या? बोले- कृष्ण ने ब्रह्मा का मद दूर किया, इन्द्र के मान का मर्दन किया, वरुण से पूजा करवा ली, यह तो कोई बड़ा मालूम पड़ता है। तो काम ने कहा कि हमसे दो – दो हाथ हो जाय ! तो चाहता ही था कि हमसे दो–दो हाथ हो जाए ! ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’- अब श्रीकृष्ण के मन में भी दो-दो हाथ करने की इच्छा हो गयी कि यह अच्छी क्रीड़ा होगी। ‘अपि’ से यही संकेत है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती
प्रवचन संख्या विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. उपक्रम 1
2. रास की भूमिका एवं रास का संकल्प 12
3. रास के हेतु, स्वरूप और काल 28
4. रास के संकल्प में गोपी-प्रेम की हेतुता 40
5. रास की दिव्यता का ध्यान 51
6. योगमाया का आश्रय लेने का अर्थ 63
7. योगमायामुपाश्रित:-भगवान की प्रेम-परवशता 75
8. कृपायोग का आश्रय और चंद्रोदय 85
9. रास-रात्रि में पूर्ण चंद्र का दर्शन 96
10. रास में चंद्रमा का योगदान 106
11. भगवान ने वंशी बजायी 116
12. गोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनी 127
13. श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अभिसार 141
14. जो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1 152
15. जो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2 163
16. जो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3 175
17. जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 187
18. विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 198
19. गोपी दौड़कर गयीं कृष्ण के पास और कृष्ण ने कहा कि लौट-जाओ 209
20. श्रीकृष्ण का अमिय-गरल-वर्षण 214
21. गोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभन 225
22. ‘लौट-जाओ’ सुनकर गोपियों की दशा का वर्णन 238
23-24. प्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलीं 248
(प्रणय-गीत प्रारम्भ)
25. गोपियों का समर्पण-पक्ष 261
26. श्रीकृष्ण में रति ही बुद्धिमानी है 276
27. गोपियों की न लौट पा सकने की बेबसी और मर जाने के परिणाम का उद्घाटन 286
28. गोपियों का श्रीकृष्ण को पूर्व रमण की याद दिलाना 297
29-31. गोपियों में दास्य का उदय 307
32. गोपियों में दास्य का हेतु-1 338
33. गोपियों में दास्य का हेतु-2 353
34. गोपियों में दास्य का हेतु-3 366
35-36. गोपियों की चाहत 376
(प्रणय-गीत समाप्त)
37-39. प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम 393
40. रास में श्रीकृष्ण की शोभा 429
41. रास-स्थली की शोभा 441
42. रासलीला का अन्तरंग-1 453
43. रासलीला का अन्तरंग-2 467
44. रासलीला का अन्तरंग-3 480
45. रासलीला का अन्तरंग-4 494
46. अंतिम पृष्ठ 500

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