विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों का समर्पण-पक्षजब तुम इन प्राणों को पीड़ा पहुँचाते हो, तो अपनी ही वस्तु को पीड़ा पहुँचाते हो-
मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं- भवान् बड़े आदर का शब्द है। एक बहुत वृद्ध सन्त थे जब मरने लगे तो लोगों ने उनसे कहा कि अपना अनुभव बता जाओ, कुछ शिक्षा दे जाओ। सन्त ने पूछा कि तुमको मेरे मुँह से दाँत दिखते हैं? पूछने वाले ने कहा- नहीं। संत ने कहा- मेरे मुँह में जीभ दिखती है? उसने कहा- हाँ, दिखती है। संत बोले- जो कठोर होता है वह टूट जाता है, और जो कोमल होता है वह बना रहता है। जीभ कोमल है तो बनी रहती है और दाँत कठोर होता है, वह टूट जाता है। यही मेरे जीवन का अनुभव है ‘पड़ाइन! शुभ-शुभ बोलो, मीठा बोलो’- हमारे गाँव में कहते हैं। गोपियाँ कहती हैं- तुम इतने मीठे, तुम्हारी वाणी इतनी कड़वी क्यों है? देखने में इतने सुन्दर, गोरोचन का तिलक और सिर पर मयूरपंख, उसका भी इतना आदर करते हो, घुँघची के दाने को गले में पहनते हो और बाँसुरी को अधरामृत पिलाते हो, और हमसे इतना कड़वा बोलते हो, आखिर क्यों? भवान्- भवान् माने चंद्रमा भी होता है- ‘भान्ति आकाशे इति भ’ जो आकाश में चमकते हैं उनको बोलते हैं ‘भ’ और ‘भ’ नक्षत्राणि सन्ति अस्य इति भवान् चंद्रमा। चंद्रमा से तो अमृत बरसना है, और तुम चंद्रमा होकर विष बरसाते हो? देखो, अपने स्वरूप के विपरीत कोई काम नहीं करना चाहिए नारायण। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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