विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों का समर्पण-पक्षयह बात क्यों कही? इसलिए कही कि गोपियाँ अनेक हैं और उनका कृष्ण के प्रति भाव एक है। एक भाव से यदि सब गोपियाँ एक ही श्लोक बोलती हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं है। परंतु चार दिशा में रहने वाली गोपियों ने चार प्रकार से बोलना शुरू किया। क्योंकि एक साथ बहुत लोग बोलने लगें तो वह तो सट्टाबाजार हो जाय। बहुत सारे सटोरिया- लोग एक साथ बोलते हैं। प्रेम की बात करनी हो तो ऐसा कोलाहल तो नहीं मचना चाहिए, शांति रहनी चाहिए। पहले संसार के लिए जो विक्षेप है वह शांत हो जाता है, तब भगवान् के लिए भाग्योदय होता है। जब तक संसार के लिए विक्षेप है तब तक भगवान् के लिए भाव नहीं उठेगा। यह संसारीभाव नहीं है।
मैवं विभो- विभो माने हे विभु! आप विभु हैं। कहती हैं- प्राणनाथ! यह जो हमारे शरीर में श्वास चलता है, इसको चलने देने का, या रोक देने का पूरा-पूरा अधिकार आपको है, मारो या जिलाओ! हमें हमारे जीने-मरने का अधिकार नहीं है, तुम्हें हमारे जिलाने-मारने का अधिकार है। चीज तुम्हारी हम कैसे मार डालेंगे? यह जो प्रेमी होता है; वह न जीने में स्वतंत्र है, और न मरने में स्वतंत्र है; जीता है तो अपने प्रियतम के लिए और मरता है तो अपने प्रियतम के लिए, गोपियों का शरीर अपना है ही नहीं। गोपियों के प्रेम में यह बात विशेष है। आपको आश्चर्य होगा कि ब्रह्माण्डपुराण में ऐसा वर्णन है कि श्रीकृष्ण के विरह में किसी गोपी का वजन कम नहीं हुआ था, और बढ़ा ही था। बोले- अरे बाबा, गोपियों को क्या विरह व्यापता है, ये तो बिलकुल अच्छी तगड़ी है, गाय दुहती हैं, पानी भरती हैं, गोबर उठाती हैं, उनको विरह कहाँ है? तो गोपियों ने कहा- यह शरीर तो हमारा नहीं है, कृष्ण का है। इसको सुखा डालने का अधिकार हमको नहीं है। हम इनके विरह में इसको दुबला नहीं कर सकतीं। वे आवेंगे और देखेंगे कि हमारा चेहरा सूख गया है, हमारी आँख रोते-रोते खराब हो गयी है, हमारा श्रृंगार बिगड़ गया है, हम उदास हो गयीं हैं, तो उनके मन में ग्लानि होगी, दुःख होगा, अपने किये पर उनको पछताना पड़ेगा। तो उनको न पछताना पड़े, इसके लिए हमको ठीक रहना चाहिए। यह विभु शब्द का अर्थ बताया। विभु माने, अपने प्राणों का स्वामी प्रियतम। गोपियाँ कहती हैं- बाबा, इन प्राणों के स्वामी हम नहीं हैं, तुम हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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