विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती‘लौट-जाओ’ सुनकर गोपियों की दशा का वर्णनजब श्रीकृष्ण ने कहा कि लौट जाओ तो गोपियों के चित्त में जो काम का संकल्प था, जो भोग का संकल्प था, वह टूट गया माने काम का बाप मर गया। गोपियों के हृदय में काम का जो भी संस्कार शेष था, उसको भगवान ने लौटाने की बात कहकर समाप्त कर दिया। भगवान प्रेम से मिलते हैं, भगवान काम से नहीं मिलते। अपने सुख के लिए कोई भगवान के पास जाय तो वह काम से जाता है। और भगवान को सुख देने के लिए जाय तो वह प्रेम से जाता है। अभी तक गोपियों की अपनी मर्जी थी, अब भगवान की मर्जी प्रारम्भ हो गयी। इसलिए ‘भग्नसंकल्पा’- संकल्प तोड़कर भगवान ने बहुत बढ़िया किया। बाद में उनका अहंकार भी भगवान ने तोड़ दिया। कैसे? कि जब अन्तर्धान हो गये तो गोपियों को मालूम हो गया कि हमारे सौंदर्य, हमारे माधुर्य, हमारे रसास्वादन के लोभ से श्रीकृष्ण हमारे साथ विहार नहीं करते। तीसरी बात क्या हुई कि ‘चिन्तामापुर्दुरत्ययाम्’ निरन्तर चिन्तन होने लगा। देखो, गोपियों का श्रवण हुआ, उसका फल हुआ वैराग्य और वैराग्य के बाद भगवान के न मिलन का दुःख हुआ, काम की निवृत्ति हुई और अब श्रीकृष्ण के बारे में चिन्तन की धारा बहने लगी जिससे उनके हृदय में विक्षेप भी समाप्त हो गया। यह रासलीला का प्रारंभ है। अब आपको सुनाते हैं।
‘कृत्वा मुखान्यव’ मुँह लटक गया। अरे भाई, आये तो भगवान के दर्शन के लिए मुँह लटक गया। टीका में चालीस-पचास बात इस पर लिखीं कि मुँह क्यों लटक गया। गोपियाँ स्वयं भगवान के अभिमुख आयी थीं और भगवान के अभिमुख होने की आशा कर रही थीं। इस आशा पर कुठाराघात हुआ, आशा टूट गयी, मुँह लटक गयाय़ आगे क्या हुआ कि ‘शुचः श्वसनेन शुष्यद् विम्बाधराणि’ होंठ सूख गये। काम रस है जो उनके शरीर में सूख गया। शरीर की क्या गति हुई- ‘चरणेन भुवं लिखन्त्यः’ बायें पाँव से धरती खोदने लगीं। इन सबका एक-एक की पाँच-पाँच प्रकार की उत्प्रेक्षाएँ हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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