विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती‘लौट जाओ’ -सुनकर गोपियों की दशा का वर्णनपहले तो वे ईश्वर मानें ही नहीं, क्योंकि ज्यादा पढ़-लिख जायँ तो उनके सिरधर डारविन सवार होते हैं, उनके सिर पर मार्क्स सवार होते हैं, उनकी आत्मा बैठ जाती है। तो पहले तो वे ईश्वर को मानते नहीं और मानें तो थोड़ा-सा असर बाइबिल का, थोड़ा असर आर्यसमाज का अपनी बुद्धि पर लेकर ईश्वर को निराकार ही मानते हैं, साकार मानते ही नहीं और जो पढ़े-लिखे वेदान्ती हो जाते हैं वे भी वेदान्त पूरा समझ में न आने से वह जो प्रक्रिया वाली बात नेति-नेतिवाली वह दिमाग में बैठ जाती है। वे गोविन्द शब्द का क्या अर्थ है यह नहीं जानते। ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठं सर्वं खल्विदं ब्रह्म, आत्मैवेदं सर्वं, सद्धीदं सर्वं, चिद्धीदं सर्वम्- इन श्रुतियों के अर्थ को तो वे भूल ही जाते हैं। तो गोविन्द का गोविन्द नाम इसलिए पड़ा है कि वह लोगों की आँख को अपनी ओर खींच ले, कान को खींच ले, और लोग भी बड़े प्रेम से खिंच जायँ, यह समझें कि कान पकड़कर जो खींचता है वह प्रेम से खींचता है। दुश्मनी से नहीं खींचता है। ये इंद्रियाँ जो संसार में जानेवाली हैं उनको अपनी ओर खींच लें, इसलिए उसको गोविन्द कहते हैं। अब यह आज उल्टा हो गया। उल्टा कैसे हो गया कि गोविन्द ही कहता है कि लौट जाओ। जब उसने बाँसुरी बजाकर के क्लींनाद करके अपनी य जादूगरी दिखायी कि सब गोपियों को यह मालूम पड़ा कि हमारा ही नाम लेकर बुला रहा है, तब तक तो वह गोविन्द था, परंतु आने के बाद उसने कहा कि लौट जाओ, तो उसमें गोविन्दपना कहाँ रहा? तो लौट जाओ ऐसा कहना गोपी के स्वरूप के भी विपरीत हुआ और गोविन्द के स्वरूप के भी विपरीत हुआ। अब जरा देखो दूसरी बात ‘विषण्णा भग्नसंकल्पाश्चिन्ता-मापुर्दुरत्ययाम्’- आपको देखे एक शाश्वत नियत बताता हूँ। जिसके लिए आपको दुःख नहीं होगा। उसके मिलने से आपको सुख भी नहीं होगा- यह शाश्वत नियम है, भला! यह नियम कहाँ से बना इस बात का गुर हम जानते हैं। चाहे ईश्वर को निर्गुण मानो, चाहे सगुण, वह सर्वदेश में, सर्वकाल में, सर्ववस्तु में एकरस है। अतः ईश्वर तो नित्य मिला-मिलाया है, उसके मिलने में सुख कहाँ से आवेगा? असल में सुख पैदा करना पड़ता है, यह सिद्धांत है। एकरस वस्तु में इतना दुःख है और इतना सुख है, यह बात स्वाभाविक नहीं हो सकती; इतनी दूर सुख है, इतनी दूर दुःख है, इतनी देर सुख है, इतनी देर दुःख है, इतने वजन का दुःख है, इतने वजन का सुख है- ये बातें परमेश्वर के सहज स्वरूप में स्वाभाविक नहीं हो सकतीं। तब सुख पहले पैदा करना पड़ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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