विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरास की भूमिका एवं रास का संकल्प-भगवानपि०
यह प्रेम जो है, वह प्रेयसी और प्रेय दोनों के हृदय मंदिर में रहता है और दीपक के समाना प्रज्वलित होता है। जैसे- दीपकी लौ वैसे यह ज्योतिर्मय रस दोनों के हृदय में प्रज्वलित होता है। इसको हृदय – मंदिर में ही रहने दो; यदि मुख- द्वार से बाहर गया तो हल्का पड़ जाएगा, डावाँडोल हो जाएगा।, डगमगा जाएगा, बाहर की हवा लग जायेगी। इस्र प्रेम-दीपक को हृदय – मंदिर में रखो। अभिमान नहीं होता इसमें। राधारानी को भी ख्याल नहीं होता कि हमारे श्रीकृष्ण का शिर झुका। तो क्या राधारानी का शिर नहीं झुका? अरे, बोले- बहुत झुका है। प्रेम का जो कोई लक्षण है वह त्याग रूप लक्षण है। अपने प्रियतम के सिवाय अन्य का त्याग। निरभिमानता इसका लक्षण है। रोने में भी वही और हँसने में भी वही। प्रेमी दूसरे के लिए नहीं रहो सकता, अपने प्रियतम के लिए रोता है और प्रेमी दूसरे के लिए नहीं हँसता, अपने प्रियतम के लिए हँसता है। उसका होना- हँसना दोनों प्रियतम् से आबद्ध हो गया। अब आप देखो- इसी रससे सृष्टि हुई है। आनन्दाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । यह आनन्द ही रस है। इसी में सृष्टि उदय होती है, इसी में सृष्टि स्थिर होती है, इसी में सृष्टि का प्रलय होता है, ‘आनन्दो ब्रह्मेति व्याजनात्’ तो वही आनन्द, वही रसब्रह्म ‘विज्ञानमानन्दं ब्रह्म’- वही साँवरा-सलोना व्रजराजकिशोर होकर व्रज में आया, व्रज में प्रकट हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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