विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरास की भूमिका एवं रास का संकल्प-भगवानपि०बिना अभिमान छोड़े कोई प्रेम नहीं कर सकता। प्रेम का स्वभाव क्या है? रस है ही द्रव पदार्थ। हृदय की द्रवता ही प्रेम है। तो कहा- गीली चीज कहाँ जाती है? नीचे की ओर जाती है। जिनकी तरफ शिर तान दें उनकी तरफ प्रेम नहीं हो पायेगा। श्रद्धा की जा सकती है, पूजा की जा सकती है, हाथ जोड़ सकते हैं, लेकिन शिर तानकर कोई खड़ा हो तो उससे प्रेम नहीं किया जा सकता। प्रेम तो तब आता है जब शिर जरा झुकता है। प्रेम-रस का स्वभाव है; निरभिमान की ओर जाना। प्रेम का स्वभाव अभिमानी के आश्रित होना नहीं है। तो कृष्ण को देखो न ! राधाचरणविलोडितरुचिरशिखण्डं हरिं वन्दे । श्रीकृष्ण का जो मयूर-पिच्छ है वह राधा रानी के पैर छू जाता है मगर गोपियाँ समझती हैं कि वह नाच रहा है। अब वह मयूर-नृत्य किया कि महाराज। राधारानी भी मयूर की तरह नृत्य करती हैं और कृष्ण भी मयूर की तरह नृत्य करते हैं। मयूर-मयूरी का जैसा नृत्य होता है वैसा। आपलोग कभी व्रज गये हों तो बरसाने में ‘मयूर कुटी’ देखी होगी। बरसाने में एक मयूर कुटी है तो वहाँ दोनों मयूर के रूप में एक मोर और एक मोरनी के रूप में दोनों नाच रहे हैं। प्रेम में शिर झुकाना पड़ता है। यह रास क्या है? अभिमान का जो पत्थर है, अभिमान की जो कठोरता है वह जब तक गल नहीं जाएगी। तब तक द्रवता- रूप रस की उत्पत्ति कैसे होगी? इसीलिए इसको रास बोलते हैं। अच्छा, बिना अभिमान छूटे समाधि लगेगी? असंप्रज्ञात समाधि- द्रष्टा का स्वरूप में अवस्थान, अभिमान टूटे बिना लगेगा? अभिमान टूटे बिना सद् वस्तु की प्राप्ति हो सकती है? अच्छा तो अभिमान टूटे बिना द्रष्टा साक्षी अपने को चेतनस्वरूप ब्रह्म अनुभव कर सकते हैं? अभिमान टूटे बिना रसरूप, प्रेम की प्राप्ति हो सकती है? चीज तो वही है, रस है। इसी को द्रवावस्था कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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