विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीश्रीकृष्ण का अमिय-गरल-वर्षणजैसे साँप टेढ़ी चाल से चलता है वैसे प्रेम भी टेढ़ी चाल से चलता है। टेढ़ी चाल से चलना भी क्या है इसमें रस बढ़ाना है। इसलिए इसमें प्रत्येक क्रिया रस बढ़ाने वाली होनी चाहिए, दुःख बढ़ाने वाली होनी चाहिए, दुःख बढ़ाने वाली नहीं चाहिए। रस कैसे बढ़े? तो रस थोड़ा खींचा-खींची में बढ़ता है। पर यह बात मालूम पड़े कि यह खींचा-खींची रस- वृद्धि के लिए है। हृदय में एक साथ ही प्रेम भी रहे, और द्वेष भी रहे ऐसा नहीं हो सकता। प्रेम और दुःख तो एक साथ हृदय में रह सकते हैं क्योंकि दुःख प्रेम का विरोधी नहीं है, कभी-कभी हम अपने प्रियतम को सुख पहुँचाने के लिए भी बहुत दुःखी हो जाते हैं। उसमें भी यह नहीं कि हमारे हाथ का बनाया नहीं खाया, यह प्रेम का लक्षण नहीं है; प्रेम का लक्षण यह है कि हमारे हाथ के भोजन के बिना उनको स्वाद नहीं आता, आज वह भूके रह गये होंगे। हमारे हाथ का भोजन उन्होंने नहीं किया- इसमें अहंभाव आया, और उनको तृप्ति नहीं हुई, इसमें उनके सुख का ख्याल हुआ। प्रेम में तो उनके सुख का ख्याल ही होता है। प्रेम-स्थिति बड़ी विचित्र है। प्रेम में सेवा का अभिमान नहीं होता, प्रेम में अपनी तृप्ति पर ध्यान नहीं होता, प्रेम में अपने प्रियतम की तृप्ति पर ध्यान होता है। इसमें प्रेमी को गरमागरम भोजन देना भी प्रेम है और साथ में फ्रिज का ठंडा पानी देना भी प्रेम है। नारायण! तो श्रीकृष्ण ने बाँसुरी बजायी, और ऐसा अमृत का लोभ दिया गोपियों को कि आओ। हम तुम्हारे बिना दुःखी हैं, तुम्हारे बिना प्राण तड़फड़ा रहे हैं, तुम्हारे बिना क्षण-क्षण काटते हैं। और जब गोपियाँ आ गयीं तो बोले-अच्छा अब थोड़ा ठंडा लिया तो थोड़ा गरमा भी लो। अवद्द वदतां श्रेष्ठो वाचः पेशैर्विमोहयन्। शुकदेवजी कहते हैं कि श्रीकृष्ण बाँसुरी भर ही बजाने में निपुण नहीं है- वदतां श्रेष्ठो बोलने वाले जितने हैं व्यास, पराशरादि, उनमें भी श्रेष्ठ हैं। तो कैसी वाणी बोले? प्रेम की वाणी भी बोले और रूक्षता की भी। बचपन में एक पत्रिका पढ़ते थे उसका नाम था ‘मतवाला’। कलकत्ते से निकलती थी। उस पर लिखा रहता था- ‘अमिय गरल शशि सीकर रविकर राग विराग भरा प्याला, पीते हैं जो साधक उनको प्यारा है मतवाला’। ये दोहरे रस जिसमें भरे-अमृत भी विष भी, राग भी, विराग भी, चंद्रामृत भी और सूर्य-ताप भी-ऐसा है यह मतवाला पत्र। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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