विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरास की भूमिका एवं रास का संकल्प-भगवानपि०पर दोनों में एक बात समान होती है। जो नकबेसर या बुलाक है, जो नाक में पहनी जाती है, वह दोनों ही हालत में अधरों से, नासिका से सीधे लटकती है, दाहिने घूमो तो भी और बायें घूमो तो भी, दोनों में ही बुलाक है, उसको बीच में से हटाकर गोपियों को हाथ से बुलाते हैं। नृत्य आकर्षण है। हट जाओ, आ जाओ। यह नहीं-नहीं जो है न, वह नखरे के अंतर्गत है, हाव है। अवहित्था, मोटाई इसके बहुत सारे भेद होते हैं। यह तो आपको भाव-शास्त्र बताना पड़ेगा। यह श्रीकृष्ण की लीला है। आप सूक्षमता से देखोगे तो आपका मन कृष्ण में चला जाएगा। बिहारी ने एक दोहा लिखा है-
अजहुँ तन्यो नाही रह्यो- अभी तक तुम तरे नहीं हो! अरो ओ! कान के आभूषण! क्यों ? बोले- श्रुति सेवत एक अंग। तुम केवल अक अंग का, कान का ही सेवन करते हो, इसलिए तर्यो नहीं, रह गये। ‘अजहुँ तन्यो नाही’- अरे ओ मनुष्य! अभी तक तू तरा नहीं, यहीं रह गया? क्यों? कहा- तुम श्रुति के, वेद के एक अंग का सेवन करते हो, इसलिए। ‘श्रुति सेवत एक अंग।’ ख़ाली कर्मकाण्ड में लग गये कि, ख़ाली वेदान्त में लग गये, कि उपासना में लग गये। बोले – नाकवास बेसर लहयो, देखो! वेसर को नाकवास मिल गया, स्वर्ग मिल गया। नाक माने स्वर्ग होता है संस्कृत मं। कैसे – मिल गया बेसर को स्वर्ग? तो कहा कि वह तो बे- सर है; उसने अपना सिर कटा दिया है। वह कैसे? कि रहि मुकुतन के संग- मोतियों के साथ रहकर। अथवा ‘रहि मुकुतनके संग’- मुक्त पुरुषों का सत्संग करके वह बेसिर होकर स्वर्ग- बास कर रहा है। बिहारी के दोहों के बारे में है कि-
तो सिर झुकाने का एक अर्थ हुआ कि देवि गोपी! तुम्हारे सामने अभिमान नहीं करते, शिर झुकाकर बैठे हैं। प्रेम को बुलाने के लिए छोटा बन जाना पड़ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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