विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीविकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव हैये देखेंगे कि उसने आँख में अंजन लगाया है कि नहीं? इतनी छोटी चीज देखकर छोड़ देंगे उसको। नहीं, इस पर उनकी नजर नहीं जाती। वे तो उसका दिल देखते हैं। मिलने के लिए आयी- बस यही देखते हैं। भगवान अज हैं। संस्कृत में अज का दो अभिप्राय होता है। अज माने एक तो होता है जिसका कोई बाप न हो, जो जात न हो और अज माने दूसरा होता है जिसका कोई बेटा न हो, जो कार्य न हो, जिसमें विकार न हो। स्वयं पैदा न हुआ हो, और उससे कोई दूसरा पैदा भी न हो। किसी के फूटने से बना न हो, और स्वयं फूटकर दूसरे का बनावे नहीं। अज शब्द का अर्थ अकार्य, और अकारण दोनों होता है। न जायते इति, न जायते यस्मादिति । जिससे कोई पैदा न हो और जो स्वयं किसी से पैदा न हो, उसका नाम अज होता है, और स्वयं तो ज्यों-का-त्यों है। एक ने उलाहना दिया भगवान को- गोपालजिरकर्दमे विहरसे विप्राध्वरे लज्जसे। ग्वाले के आँगन में जो तरह-तरह की कीचड़ हरी-हरी, पीली-पीली, लाल-लाल, काली-काली उसमें तो लथपथ होकर उसको तो अपने शरीर में लगाते हो, क्या ब्राह्मणों के यज्ञ में जाने को तुमको कोई शर्म आता है। ब्रूषे गोधनहुंकृतैः श्रुतिशतैर्मौनं विधत्से विदाम् । गौएं जब हुंकार करती हैं तो उनके साथ ही, सरस्वती, गंगे, यमुने करते हुए दौड़ते हो और जब ब्राह्मण लोग वेदपाठ पढ़ते हैं, तो मौनीबाबा क्यों बन जाते हैं? दास्यं गोकुलपुंश्चलीसुपुरुषे स्वाम्यं नदान्तात्मसु । गोपियों की तो सेवा करना चाहते हो, और संन्यासियों का मालिक बनना भी मञ्जूर नहीं करते हो? जाने कृष्ण तवाऽङ्घ्रिपंकजयुगं प्रेमैकलभ्यं शताम् । समझ गया कृष्ण, समझ गया, तुम्हारे चरणारबिन्द की प्राप्ति केवल प्रेम से होती है, उसके लिए साधन की, उसके लिए प्रमाण की, उसके लिए साधन-प्रमाण के निषेध की और उसके लिए साधन की, उसके लिए प्रमाण की, उसके लिए साधन-प्रमाण के निषेध की और उसके सर्वमय भगवद्भाव की जरूरत नहीं होती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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