विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीविकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव हैवेद पर प्रामाण्य बुद्धि करवाने के लिए ब्राह्मण की सेवा है। क्योंकि इनकी परंपरा ने वेद को धारण किया है, वेद के संस्कार को धारण किया है। इसीलिए अंतरंग साधन के अन्तर्गत ब्राह्मण-सेवा आयेगी। और बहिरंग साधन के अंतर्गत साधु की सेवा आती है क्योंकि त्याग-वैराग्य पर श्रद्धा कराने के लिए लिए साधु-सेवा है। अतः साधु किसी भी जाति का हो, लेकिन त्यागी-वैरागी हो तो उसका आदर करना चाहिए; लेकिन वह बहिरंग साधन का आदर हुआ। और वेद जो है उसको धारण करने के कारण, उपनिषद् को धारण करने के कारण ब्राह्मण की सेवा है, माने अंतरंग जो प्रमाण है श्रवण आदि, उसके प्रति आदर भाव करना है। यह बड़ी अद्भुत गति है। इसीलिए ब्राह्मण, साधु एक साथ- आदर के पात्र हैं। अब गंगा स्नान में यह मालूम हो कि यह गंगा है या न मालूम हो- नहाने से हृदय पवित्र होगा। जिस दिन बाद में भी मालूम होगा कि मैंने जिसके वैतरणी समझकर स्नान किया था वह तो गंगा भी उसी दिन हृदय पवित्र हो जाएगा। वैतरणी भी एक नदी है। उड़ीसा में वैतरिणी पार करके तब जगन्नाथपुरी जाते हैं। और महाराज इधर भी एक वैतरणी है कौन-सी? यही कर्म के दुराग्रह की प्रमाण और निषेध की अनिवार्यता की, इत्यादि। बात क्या हुई कि जब भगवान् आये हैं, भगवान् तुम्हारे बीच में खड़े हैं और वे इसीलिए आये हैं कि अब उनके साथ कर्म मत जोड़ो, अब उनके साथ नेति-नेति मत जोड़ो, उनको यह मत कहो कि सब वे ही हैं, पहचानों उनको वह अपनी पहचान कराने के लिए मोरमुकुट धारण करके, बाँसुरी हाथ में लेकर, पीताम्बर ओढ़कर नन्द-नन्दन, श्याम सुन्दर, मुरली मनोहर के रूप में आये हैं। जो लोग कहते हैं कि यह भाव है, कल्पना है, वे तो शास्त्र में जिस प्रयोजन से जिसका वर्णन है उस प्रयोजन का ही लोप कर देते हैं, शास्त्र में इस प्रयोजन से भगवान् के अवतार का वर्णन है कि यज्ञ भी, आचारहीन भी, ज्ञानहीन भी, भक्तिहीन भी उसका सहारा लेकर पार हो जाएँ। मगर उसके कल्पना-कल्पना करने वाले लोग उसका भाव कहाँ बनने देते हैं? कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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