विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीविकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव हैये तो हुई जिन्दगी, लेकिन द्वेष और प्रेम दोनों के अंत में जब मिला परमात्मा तो वही का वही। ये तो रंगमंच पर हैं- प्रेम और द्वेष दोनों रंगमंच पर हैं, परदे के पीछे नहीं हैं, परदे के पीछे तो अपना घर है। एक आदमी के घर कोई मेहमान आया और टाले न टले तो पति पत्नी ने आपस में सलाह की कि इसे कैसे टालें, तो महाराज! दोनों बस चाय पीने के लिए बैठे, तो लड़ गये आपस में। पत्नी ने कहा- चूल्हा ही नहीं जलेगा, घर में रोटी नहीं बनेगी। पति ने कहा- कैसे नहीं जलेगा। आज मेहमान हैं घर में और चूल्हा कैसे नहीं जलेगा? तो बोली- तुम्हारे मेहमान के मुँह में मैं आग डाल दूँगी। अब महाराज, मेहमान ने दोनों को नमस्कार किया; बोला हम तो जाते हैं। मेहमान चले गये तो दोनों ताली पीटकर हँसने लगे, कि अच्छी युक्ति निकाली। तो यह जो लड़ाई है वह केवल रंगमंच पर है, नेपथ्य में नहीं है। नेपथ्य में ईश्वर से किसी की लड़ाई नहीं है। वह परम प्रेमास्पद आत्मा सबका अन्तर्यामी, सबका स्वामी है। एकान्त में लड़ाई नहीं है, वह तो नाटक में लड़ाई है। यह तो भगवान् की लीला थी, इसमें कोई भगवान् का द्वेषी नहीं है, प्रेमी नहीं है। भगवान् जैसा खेलना चाहते हैं उसके साथ वैसा ही खेल खेलते हैं। चैद्यः सिद्धिं यथा गतः। अब बोले द्विषन्नपि हृषीकेशं- शिशुपाल की बात तो ठीक, परंतु गोपियों की कथा तो बिलकुल निराली है। क्या? किमुताधोक्षजप्रियाः- अधोक्षज शब्द भगवान् के लिए आता है। इसका अर्थ होता है कि संसार में जितना सुख है भगवान् से नीचे है, जितना ज्ञान है सो भगवान् से नीचे है, जितनी वस्तु है सो भगवान् से नीचे है अधस्ताद् अक्षजं ज्ञानं यस्मात्- इन्द्रियजन्य ज्ञान, ऐन्द्रिक ज्ञान जिससे बहुत नीचे हैं उसको बोलते हैं अधोक्षज। नारायण। अंतर्यामी, आत्मदेव, साक्षी अधोक्षज हैं। बोले- उनसे हैं अधोक्षज। नारायण। अन्तर्यामी, आत्मदेव, साक्षी अधोक्षज हैं। बोले- उनसे यदि सद्भाव, चिद्भाव, आनन्दभाव, अप्राकृतिक, अलौकिक दिव्य शरीर की प्राप्ति हो जाए और वे भगवान् की लीला में पहुँच जायँ तो आश्चर्य क्या? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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