रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 196

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रासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है

जिस प्रकार से चैद्य को सिद्धि मिली (चैद्य माने शिशुपाल, चेदि देश का राजा, उसका नाम चैद्य), अरे देखा नहीं, सुना नहीं, तुम्हारे दादा के यज्ञ में गाली दे रहा था शिशुपाल, द्वेष कर रहा था शिशुपाल और उसके शरीर में से ज्योति निकली और कृष्ण के शरीर में समा गयी, कृष्णाकार हो गयी। गाली देनेवाले की जब ऐसी गति हुई, तो प्रेम करने वाले को भला क्या गति मिलेगी।

द्विषन्नपि हृषिकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः ।

द्विषन्नपि हृषीकेशं- वह तो हृषीकेश से द्वेष करता था। द्वेष में दो चीज होती हैं और प्रेम में भी दो चीज होती हैं, प्रेम में स्मरण होता है और स्वाद आता है; द्वेष में स्मरण होता है और जलन होती है। एक में जलन है और एक में मजा है, लेकिन स्मरण दोनों में है। चैद्यः सिद्धिं यथा गतः । एक बाप के सामने दो बच्चे बैठे थे। देखा, बाप बैठा है तो एक दौड़कर पाँव छूने लगा, बाप ने झट उसको गोद में बैठा लिया। दूसरा दौड़ा कि मूँछें उखाड़ लें। उस जमाने में लोग मूँछ रखते थे, अब नहीं रखते। उस जमाने में पौरुष का चिह्न मानते थे। नाक में से बलगन सीधे मुँह में न पहुँच जाए इसके लिए भगवान् ने मूँछ बनायी थी। इतना ही नहीं जब हम लोग साँस लेते हैं तो हवा के कण साफ-साफ छन जायँ और हवा शुद्ध होकर नाक में घुसे इसके लिए भी हमारे पूर्वजों ने मूँछों की आवश्यकता समझी थी। इस पर पुरुषों ने कहा कि अगर यह कोई बात होती तो भगवान् स्त्रियों के लिए भी मूँछें देते कि उनका भी बलगम सीधे मुँह में न जाय और उनकी नाक में भी शुद्ध हवा जाय। भगवान् ने ऐसा पक्षपात क्यों किया?

लेकिन पक्षपात यों किया कि स्त्रियों के बारे में भगवान् की धारणाएँ थी कि ये सड़क पर ज्यादा नहीं घूमेंगी, ऐसा उनका ख्याल था। अब इसमें क्या बात हुई कि जब बाप बैठा था और बच्चा मूँछ पकड़ने के लिए दौड़ा, नाक में उँगली डालने के लिए दौड़ा, तो जैसे उसने प्रणाम करने वाले को गोद में बैठाया था वैसे ही उसको भी उसने अपनी गोद में बैठा लिया। तो क्यों बैठाया? क्योंकि वह उसको भी अपना बच्चा समझता है- कथश्चिन्नेक्ष्यते पृथक् श्रीमद्भावगत में आया कि बच्चे भले न पहिचाने कि हमारा बाप है लेकिन बाप तो पहचानता है कि यह हमारा बेटा है। किसी भी भाव से जब अपना बेटा अपने पास आता है तो बाप उसके प्रति स्नेह ही करता है, वात्सल्य ही करता है, उसका भला ही करता है। द्विषन्नपि हृषिकेशं- शिशुपाल, दन्तवक्र, कंस, कंस भय से आया, शिशुपाल द्वेष से आया, पाण्डव लोग संबंध से आये, यदुवंशी लोग स्नेह से आये नारद आदि ईश्वर की भक्ति से आये और कुब्जा आदि काम से आयीं और गोपियाँ प्रेम से आयीं, लेकिन भगवान् यह नहीं देखते हैं कि कैसे आये, वे तो यह देखते हैं कि हमारे पास आते हैं। उनका यह ख्याल है कि दुनिया में जो हमारे पास आता है वह हमारी छाती से लगने के लिए आता है; उनको अपने सच्चिदानन्द होने का भाव है न! ये सब चित्सस्वरूप, आनन्दस्वरूप, रसस्वरूप हैं तो जो मेरी ओर आ रहा है, हृदय में ही लगने के लिए आ रहा है। द्वेष से आने वाले के हृदय में भगवान् का स्मरण जो है वह भगवान् के पास पहुँचा देता है और जलन जो प्रतिबन्ध है उसको मिटा देता हैं और अंत में भगवान् का वात्सल्य उसको हृदय से लगा लेता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती
प्रवचन संख्या विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. उपक्रम 1
2. रास की भूमिका एवं रास का संकल्प 12
3. रास के हेतु, स्वरूप और काल 28
4. रास के संकल्प में गोपी-प्रेम की हेतुता 40
5. रास की दिव्यता का ध्यान 51
6. योगमाया का आश्रय लेने का अर्थ 63
7. योगमायामुपाश्रित:-भगवान की प्रेम-परवशता 75
8. कृपायोग का आश्रय और चंद्रोदय 85
9. रास-रात्रि में पूर्ण चंद्र का दर्शन 96
10. रास में चंद्रमा का योगदान 106
11. भगवान ने वंशी बजायी 116
12. गोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनी 127
13. श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अभिसार 141
14. जो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1 152
15. जो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2 163
16. जो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3 175
17. जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 187
18. विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 198
19. गोपी दौड़कर गयीं कृष्ण के पास और कृष्ण ने कहा कि लौट-जाओ 209
20. श्रीकृष्ण का अमिय-गरल-वर्षण 214
21. गोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभन 225
22. ‘लौट-जाओ’ सुनकर गोपियों की दशा का वर्णन 238
23-24. प्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलीं 248
(प्रणय-गीत प्रारम्भ)
25. गोपियों का समर्पण-पक्ष 261
26. श्रीकृष्ण में रति ही बुद्धिमानी है 276
27. गोपियों की न लौट पा सकने की बेबसी और मर जाने के परिणाम का उद्घाटन 286
28. गोपियों का श्रीकृष्ण को पूर्व रमण की याद दिलाना 297
29-31. गोपियों में दास्य का उदय 307
32. गोपियों में दास्य का हेतु-1 338
33. गोपियों में दास्य का हेतु-2 353
34. गोपियों में दास्य का हेतु-3 366
35-36. गोपियों की चाहत 376
(प्रणय-गीत समाप्त)
37-39. प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम 393
40. रास में श्रीकृष्ण की शोभा 429
41. रास-स्थली की शोभा 441
42. रासलीला का अन्तरंग-1 453
43. रासलीला का अन्तरंग-2 467
44. रासलीला का अन्तरंग-3 480
45. रासलीला का अन्तरंग-4 494
46. अंतिम पृष्ठ 500

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