विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरास की भूमिका एवं रास का संकल्प-भगवानपि०उस कृष्ण को देखा- सब व्रजवासियों के मन में यह हो गया कि यह साक्षात् भगवान हैं। यह रासलीला तो आनन्द की लीला है। तो यह सब बैकुण्ठ लोक में अपना नारायण के रूप में दर्शन देना, कृष्ण के रूप में दर्शन देना; वरुण लोक में अपने को देवपूज्य बताना, इससे पारलौकिक ऐश्वर्य को तुच्छ कर दिया। लोक में कर्म की साधना को तुच्छ किया। गोवर्धन लीला से और यज्ञकर्ता ब्राह्मणों की अपेक्षा यज्ञानधिकारिणी जो उनकी स्त्रियाँ हैं, भक्तिभाव के कारण उनकी श्रेष्ठता दिखायी। ये सारी बातें रास पञ्चाध्यायी की भूमिका है। जो लोग कहते हैं कि रासपञ्चाध्यायी तो अनवसर ही आ गयी। कहाँ वरुणलोक का वर्णन, कहाँ वैकुण्ठलोक का वर्णन और कहाँ कि रासपञ्चाध्यायी का वर्णन। तो कहने का अभिप्राय यह है कि प्रसंग की संगति है, यह अनवसर नहीं है। यदि इतनी लीला भगवान श्रीकृष्ण प्रकट न कर लेते, एकाएक नाचने ही लगते तो सब लोग उनको नचकैया ही समझते न! यह तो कोई नचनिया है। कहा- अरे। नचनिया नहीं है। वरुण के द्वारा पूज्य है, वैकुण्ठ का स्वामी है, इन्द्रमयर्दक है। अधिकारी- अनिधिकारी का विचार किए बिना रसदान करने के लिए आया हुआ है। तो ये सारी बातें जब आ गयीं तब रास का वर्णन आता है। रास में भी बड़ी अद्भुत-अद्भुत बातें हैं। इसका वर्गीकरण होता है- आकर्षण लीला, प्रेम-प्रकाशन लीला इत्यादि। बाँसुरी बजाकर- ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ यह आकर्षण लीला है। गोपियों के हृदय में कितना प्रेम है, इसको प्रकट करन के लिए प्रेम प्रकाशन लीला है। कह दिया- लौट जाओ, धर्म की दृष्टि से गोपियाँ डर गयीं। कितना प्रेम है उनका, यह जाहिर हो गया। गोपियों में कितना त्याग है, कितना संसार से वैराग्य है; श्रीकृष्ण से कितना प्रेम है, यह प्रेमप्रकाशन लीला है। इसके अलावा अनुसंधान लीला है, अन्तर्धान लीला है, और भी लीला हैं। कि रासपञ्चाध्यायी में बड़े विलक्षण-विलक्षण भाव हैं- आध्यात्मिक व्याख्या करें तो वह भी निकलती है पर जहाँ रस का प्रसंग हो वहाँ अध्यात्म निकालने की कोई जरूरत नहीं है। अध्यात्म की व्याख्या करनी हो तो ‘अपूर्व अनपरं, अनन्तरं’ हमारी बहुत सी श्रुतियाँ हैं। कोई आध्यात्म की कमी होती है तो इसमें से निकालकर उसको पूरा करते। अरे, हमारे ऋषि-महर्षि अध्यात्म बोलते हैं तो खुलेआम बोलते हैं, उनको कोई छिपाने की जरूरत थोड़े ही है। यह तो रासलीला है। ‘रसो व सः रसं ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दी भवति’ परमात्मा क्या है? बोले- रस है। यह हृदय में जो सरोवर है, उस हृदय-सर में जो रस है, वह कौन है? कि ब्रह्म है। जैसे सरोवरों में जल होता है वैसे हृदय सरोवर में रसात्मक कौन है? तो कहा-ब्रह्म। यह दहर विद्या में जैसे वर्णित है वैसे। यह छान्दोग्यपनिषद् में दहर विद्या है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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