विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीभगवानपि०-रास की भूमिका एवं रास का संकल्पदेखो, हाथ का देवता है इंद्र। पहाड़ भी उठाया तो कृष्ण ने अपने ऊपर नहीं लिया। उनके हाथ में बैठा हुआ जो इन्द्र था उनके ऊपर ही रख दिया कि लो बेटा, तुमने बहुत सताया है- वर्षा करते हो न। और फिर शत्रु के सामने शत्रु को भिड़ा दिया। कैसे? बोले- इन्द्र ने पहाड़ों की पाँख पहले काट दी थीं तो पहाड़ों से उसकी पहले से ही दुश्मनी थी। तो बोले- दुश्मन के सामने दुश्मन को खड़ा करो, खुद मत खड़े हो। इन्द्र और पहाड़ों की दुश्मनी है तो इन्द्र और पहाड़ को ही भिड़ा दिया। इस प्रकार एक तो वीर रस से गोपियों के चित्त में श्रृंगार रस का संचार हुआ। सात दिन तक लगातार आँक मिलाने का मौका मिला, देखने का मौका मिला; इससे प्रीति का उदय हुआ और दूसरे कर्मवाद का विध्वंस हुआ। व्रज में देवताओं की पूजा की अपेक्षा वहाँ की माटी की पूजा अच्छी है। व्रज का एक कंकड़ भी स्वर्ग का देवता है। बोले किसकी पूजा करें? कृष्ण ने कहा- स्वर्ग के देवता की नहीं, व्रज की कंकड़-पत्थर की पूजा करो। व्रज की महिमा बड़ी है। गोवर्धन धारण करके अब ‘गोविन्द’ पद पर अभिषेक हुआ। कर्म गया कर्म की साधनता गयी। इन्द्र का यज्ञ मिटाने से कर्म की साधनता गयी और प्रीति उत्पन्न हुई व्रज-भूमि में। अब वरुणलोक में गये। परलोक का जो सुख है वह व्रज की प्रीति के सामने तुच्छ है। लौट आये। गोपों को वैकुण्ठ में अपने ऐश्वर्य का दर्शन करा दिया। यह सब रास का अंग है- यह सब रासलीला की भूमिका है। सब व्रजवासियों ने वैकुण्ठ में सिंहासन पर बैठे हुए- ‘कृष्णञ्च तत्रच्छन्दोर्भिः स्तूयमानं सुविस्मिताः।’ जब देखा- कि से वेद कृष्ण की ही स्तुति करते हैं और ये तो वैकुण्ठ में सिंहासन पर बैठे हुए हैं-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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