विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2हीरा-मोती नहीं लूटता है, देह नहीं लूटता है, यह तो मन लूटता है, यह तो आत्मा लूटता है। यह तो सारे अन्तःकरण को ही, इन्द्रिय समूह को ही, मनोवृत्ति- समूह को ही, अपनी ओर खींच लेता है।
अब तो महाराज! मोहिताः- मोहित हो गयीं। मुह् वैचित्ये- गोपियों का चित्त विचित्त हो गया पहचाने ही नहीं। बाप बोल रहा है कि क्या बोल रहा है, सुनायी नहीं पड़ा; यह पति बोल रहा है। कौन है? यह पति है, पहचान में नहीं आया, मानो पति से, पिता से, भाई से कोई जान-पहचान ही न हो। अन्तर्गृहगताः काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः। कहते हैं जो पूर्वजन्म की योगिनी थीं, उनका वैसा ही अभ्यास रहा। गाँव की ग्वालिनें जो गाय दुह रही थीं या जो खुले कमरे में थीं, आँगन में थी, जिनका रास्ता खुला हुआ था, वे तो चली गयीं और कोई तो बन्द कमरे में थी- अंतर्गृहगताः काश्चिद्; अरे, उनको इतना भी छेद बाहर निकलने को नहीं मिला कि चिड़िया बनकर उड़ जायँ- अलब्धविनिर्गमाः। ‘वि’ माने होता पक्षी, ‘वि’ माने शकुनि, ‘अलब्धविनिर्गमा’ जिस रास्ते से चिड़िया उड़कर, निकलकर उड़ जाती थीं, वह झरोखा, वह खिड़की भी उनको नहीं मिली, रास्ता दीखना ही बन्द हो गया, तब ‘निमीलितलोचनाः।’ ये आँख अगर भगवान् से अलग ले जाती हों तो आँख नहीं चाहिए, ये ईश्वर को देखने के लिए बनी हैं। परंतु प्रेम होवे तन न! तब क्या किया? कि- ‘मीलितलोचना, लोचनं ज्ञानं’- उनका ज्ञान जो है वह लुप्त हो गया, और ‘तद्भवनायुक्ताः कृष्णं दध्युः’ कृष्ण का ध्यान किया। भला गोपी को इतनी जल्दी ध्यान कैसे लगा गया? तो तद्भावना, कृष्णं दध्युः यतः तद्भावनायुक्ताः- हमेशा से भावना तो वही थी। कृष्ण की भावना, कृष्ण की भावना; जिसके प्रति भावना होती है उसका ध्यान लग जाता है। ध्यान लगने का यही तरीका है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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