विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीभगवानपि०-रास की भूमिका एवं रास का संकल्पशीशे में श्रीकृष्ण ने अपनी मुखच्छटा देखी- मुखच्छवि देखी- और बोले- अपरिकलितपूर्वः कश्चमत्कारिकारी । मैंने तो कभी नहीं देखा, यह कौन है? बोले- लाला! आखिर चाहते क्या हो? चाहते ये हैं कि मैं राधा होता तो इसी से ब्याह करता ‘अहमपि परिभोक्तुं कामये’- श्रीकृष्ण के मन में कामना हो जाती है जिस अपने प्रतिबिम्ब को देखकर, इतने सुन्दर हैं वे कृष्ण- देखो- बात यह है– योगी लोग जब परमात्मा का वर्णन करते हैं तो वे समाधि में चित्त की संपूर्ण वृत्तियों का विरोध करके जो सत्तामात्र निर्विशेष रहता है उस पर उनका जो ज्यादा रहता है और वेदान्ती लोग जब दृग्दृश्य विवेक करते हैं, संवित् संबंध का विवेक करते हैं, तो चेतनता पर, संक्षिपता पर उनका जो ज्यादा रहता है। यह परमात्मा को समझने की प्रक्रिया है। परंतु भक्त लोग जब परमात्मा का निरूपण करते हैं तो आनन्दांश पर उनका जोर ज्यादा रहता है। ज्ञानांश में विवेक की प्रधानता है, सत्तांश में स्थिति की प्रधानता है और आनन्दांश में प्रेम की प्रधानता है। परमात्मा एक ही है। वही सत् है, वही चित्त है और वह आनन्द है। पर जब साधन का निरूपण करना पड़ता है तो सत्तांश स्थिति की प्रधानता से- प्राणायाम्, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि लगा करके अपने अखण्ड सत्स्वरूप में स्थित होते हैं और वेदान्ती लोग जब विवेक करते हैं, दृग्–दृश्य विवेक करके, साक्षी चित्सवरूप में होते हैं और भक्त लोग जब विवेक करते हैं तो भक्तों का विवेक दूसरा होता है- रस वै सः रसंय ह्येवायं लब्धवा आनन्दी भवति । वह रस-स्वरूप है और इस रस को पाकर भक्त की आनन्दी हो जाता है। आप एक बार भागवत पर दृष्टि डालें। सायंकाल श्रीकृष्ण गाय चराकर व्रज में लौट रहे हैं- गोरजश्क्षुरितकुन्तलबद्धबर्हवन्यप्रसूनरुचिरेक्षणचारुहासम् । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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