विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1वेदान्तियों के भविष्य बाधित होता है पर क्रिया सब ठीक होती है; पर प्रेमियों का भविष्य बाधित नहीं होता है, बस भविष्य का ख्याल ही उतर जाता है, भविष्य का विस्मरण हो जाता है। वेदान्ती को ऐसा नहीं होता। प्रेम तो चित्त में सदा रहने वाली एक वृत्ति है- प्रेम हृदय में रहने वाला प्रियता विशिष्ट हृदय का आकार है, वह प्रेमी में रहता है। परंतु वेदान्ती लोगों के कुछ रहता ही नहीं, एक बार बाधा हुआ और खाली। अपने स्वरूप का ज्ञान हुआ और फिर कुछ नहीं। उनको कुछ याद वाद की जरूरत ही नहीं, यदि रहे तो ठीक और ना रहे तो ठीक; पर प्रेम में याद रहती है। एक बार एक बड़े भगतराज बीमार थे अब हमको तो वह वेदान्त के विद्यार्थी समझते थे, सो हमको वह जिज्ञासु बोलना सीख गये थे। हम गये उनको देखने। वे तो महाराज शिर पकड़ के और बस छटपटायें इधर-से-उधर। उनको देखकर हमको एक शंका हुई- प्रश्न उठा चित्त में। हमने जाकर महात्मा से पूछा- मैंने कहा कि यदि वह वेदान्ती होते और ब्रह्मज्ञ होते हैं और ब्रह्मज्ञ होने के बाद सिर के दर्द से उनका शरीर छटपटाता होता तो हम कहते कि उनका वह शरीर और वह दर्द भी वाधित था, तो उनका वह छटपटाना भी वाधित होने दो। लेकिन जब वह भगवान के प्रेमी हैं और उनके हृदय में भगवदाकार वृत्ति है, तो यह बताओ कि दर्दाकार वृत्ति और भगवदाकार वृत्ति दोनों एक साथ हृदय में कैसे? शायद यह सुनकर किसी और के मन में भी प्रश्न उठे कि ऐसा कैसे? इसलिए बताता हूँ कि उन महात्माने क्या बताय। भक्त को ऐसा मालूम पड़ता है कि भगवान हमारा शिर भीतर- ही- भीतर दबा रहे हैं और यह दर्द उनका ही दिया हुआ है। जब वे दबाते हैं तब मैं चिल्लाता हूँ हाय- हाय- हाय, अरे राम मार डाला क्यों इतना दर्द देता है? क्यों इतना दबाता है? उसी से लड़ते हैं हम। उनको दर्द में भी भगवान दिखताहै। अगर रोने में, चिल्लाने वाला भगवान न दिखे और हँसने में हँसाने वाला भगवान न दिखे तो अपने प्रेम की कमी समझना। वहाँ जिलाने वाला भी भगवान है, मारने वाला भी भगवान है। अगर दूसरे के रुलाये रोते हो, दूसरे के मारे मरते हो और दूसरे के जिलाये जीते हो तो प्रेम नहीं है। प्रेम में वही रुलाने वाला, वही हँसाने वाला, वही जिलाने वाला है। यह भक्ति की बात बड़ी विलक्षण है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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