विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीभगवानपि०-रास की भूमिका एवं रास का संकल्पलीलामाधुरी क्या है? ‘प्रातर्व्रजात् व्रजत आव्रजतश्च सायं’- जिस समय प्रातः व्रज से निकलते हैं और सायं वनसे लौटते हैं, क्या छटा है, क्या लीला करते हैं। झूम-झूमकर चलते हैं- झूमि झूमि पग धरत धरणिपर गति मातंग लजावहि, लटक लटक, मनमोहन आवनि, झूमि झूमि पग धरत धरणि पर। लीलापूर्वक पाद-विन्यास करते हैं। ठुमुक-ठुमक कर पाद-विन्यास करते हैं। घूम-घूमकर देखते हैं। एक एक से आँख मिलती है। जितनी स्थिरता ब्रह्म में उतनी ही चंचलता कृष्ण में। प्रतिक्रिया हो गयी, ब्रह्म का स्थायित्व, कृष्ण चांचल्य के रूप में परिणत हो गया। कहो- ब्रह्म स्थिर है या चंचल है? बोले- वह दोनों है। अचल भी वही, चंचल भी वही। चंचल-अचल का अधिष्ठान भी वही है, चंचल अचल का आश्रय भी वही है। चंचल अध्यस्त भी उसी में है, वही चंचल है, वही अचल है। यह नहीं समझना कि वेदान्ती लोग जिस अचल का विचार करते हैं वह सिर्फ अचल ही अचल है, चंचल है ही नहं। वह सब है- ‘तदेजति तन्नैजति’ वह नाचता है। ‘तेदजति’ माने ‘तद्ब्रह्म तत् कृष्णरूपं ब्रह्म एजति नृत्यति’। और तन्नैजति माने जब गोपियाँ नाचने लगती हैं तब वह एक जगह खड़ा हो जाता है। ‘तददूरे’ – नाचता – नाचता वह दूर चला जाता है; ‘तद्वन्ति के’- नाचता-नाचता गोपियों के बीच में आ जाता है। ‘तदन्तरस्य सर्वस्य गोपीजनस्य’ – वह सब गोपियों के भीतर है; वह सब गोपियों के भीतर घुस जाता है; दो-दो में एक। और ‘तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः’ वह सब गोपियों से बाहर निकल जाता है। यह वेद का मंत्र है शुक्ल यजुर्वेद का-
कभी अकेला होता है कृष्ण, बाँसुरी बजा रहा होता है, गोपियाँ नाच रही होती हैं; कभी गोपियों के साथ नाच रहा है; कभी मण्डल बनाकर गोपियाँ नाच रही हैं और वह भीतर है। कभी नाचता है और कभी नहीं नाचता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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